२८५ - विनय-पत्रिका काम, क्रोध, मद, लोभ, नींद, भय, भूग, प्यास सपहीके। मनुज देह सुर-साधु सराहत, सो सनेए सिय-पीके ॥ २॥ सूर, सुजान सुपूत सुलच्छन गनियत गुन गरुआई। विनु हरि भजन इँदारुनके फल तजत नहीं करआई ॥३॥ कीरति, कुल, करतूति, भूति भलि सील सरूप सलोने । तुलसी प्रभु-अनुराग-रहित जस सालन साग अलोन ॥ ४॥ भावार्थ-जिसकी श्रीरामचन्द्रजीसे प्रीति नहीं है, वह इस संसारमें गदहे, कुत्ते और सूअरके समान वृया ही जी रहा है ॥ १॥ काम,क्रोध,मद, लोभ, नींद,भय, भूख और प्यास तो सभीमें है । पर जिस वातके लिये देवता और संतजन इस मनुष्य-शरीरकी प्रशसा करते हैं, वह तो श्रीसीतानाय रघुनाथजीका प्रेम ही है (भगवत्प्रेमसे ही मनुष्य-जीवनकी सार्थकता है)॥२॥ कोई शूरवीर, सुचतुर, माता- पिताकी आज्ञामें रहनेवाला सुपूत, सुन्दर लक्षणवाला तया बड़े-बड़े गणोंसे युक्त भले ही श्रेष्ठ गिना जाता हो; परन्तु यदि वह हरिभजन नहीं करता है तो वह इन्द्रायणके फलके समान है, जो (सब प्रकारसे देखनेमें सुन्दर होनेपर भी) अपना कड़वापन नहीं छोड़ता॥३॥ कीर्ति, ऊंचा कुल, अच्छी करनी, बडी विभूति, शील और लावण्यमय स्वरूप होनेपर यदि वह प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके प्रति प्रेमसे रहित है, तो ये सब गुण ऐसे ही हैं, जैसे बिना नमककी साग-भाजी ॥४॥ [१७६] राख्यो राम सुखामी सो नीच नेह न नातो। एतो अनादर ते न हातो ॥१॥ जोरे नये नाते नेह फ़ोकट फीके । देहके दाहक,गाहकजीके।२।
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२७९
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