३१२ - विनय-पत्रिका जासु बंधु वध्यो व्याध ज्यो, सो सुनत सोहातन काहु ॥ ५॥ भजन विभीपनको कहा, फल कहा दियो रघुराज । राम गरीव-निवाजके बड़ी बाह-पोलकी लाज ॥६॥ जपहि नाम रघुनाथको, चरचा दूसरी न चालु। सुमुख, सुखद,साहिव,सुधी समरथ कृपालु,नतपालु ॥७॥ सजल नयन, गदगद गिरा, गहवर मन पुलक सरीर । गावत गुनगन रामके केहिकी न मिटी भव-भीर ॥८॥ प्रभु कृतग्य सरवग्य है, परिहरु पाछिली गलानि । तुलसी तोसो रामसो कछु नई न जान-पहिचानि ॥९॥ भावार्थ-अब भी यदि तू अपनी (नीच करतूतोंको) और श्रीराम- जीके ( दयासे पूर्ण) करतबोंको समझ ले, तो तेरा कल्याण हो सकता है, कहाँ तू (रामविमुख विषयोंमें लगा हुआ जीव ) और कहाँ (अहेतुकी दयाके समुद्र) कोसलपति भगवान् श्रीरामचन्द्रजी ! तुझे सब लोग क्या कहते हैं ? (कि यह रामका भक्त है । भक्त और भगवान्में कोई भेद नहीं होता। ऐसा कहलानाक्या तेरीकरतूतोंका फल है)॥१॥ अरे, जरा ( विवेकरूपी )दर्पणमें (अपने मनरूपी ) मुखको तो देख कि कब तो श्रीरामजीने प्रसन्न होकर तुझपर कृपा की है और कब गरसेमें आकर तुझे गालियाँ दी हैं ? (विचारनेसे तुझे यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि श्रीरामने तो सदा कृपा ही की है, जो कुछ दोष है, सो तेरा ही है । भगवान् गुस्से होकर गालियों देने लगें तो जीवका निस्तार ही कैसे हो !) फिर (अपनी करतूतोंके लिये) अपनी हार मान (न तो यह समझ कि मेरी करनीसे मैं भक कहलाया है और न उनपर दोषारोपण ही कर कि भक्त होनेपर भी वे मेरा
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