पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कछु न सा जप-तप कर विनय-पत्रिका ३१८ बँधत बिनहिं पास सेमर-सुमन आस करत चरत तेइ फल बिनु हीर ॥२॥ कछु न साधन सिधि, जानो न निगम-विधि, नहिं जप-तप वस मन, न समीर । तुलसिदास भरोस परम करुना-कोस, प्रभु हरिहै विषम भवभीर ॥ ३॥ भावार्थ-श्रीरघुनाथजीके चरणों में मेरा प्रेम नहीं है, इसीसे मैं विपत्तियोंको भोग रहा हूँ, ( मेरा ही नहीं ) वेदों और समस्त बुद्धिमान मुनियोंका (भी) यही कहना है, क्योंकि जो हिरण चन्द्रमाकी गोदमें बैठा अमृतका खाद ले रहा है, उसे भला मृगतृष्णाके जलमें भ्रम क्यों होगा ? (जिस जीवने श्रीराम-पद-कमलोंके प्रेमानन्दका अनुभव कर लिया वह मिथ्या संसारी सुखोंमें क्यों भूलेगा) ॥१॥ जैसे पक्षी (तोता ) पढ़ता तो सब है, पर समझता कुछ नहीं है, वैसे ही बिना समझे अनेक पुराण सुननेसे अज्ञान नहीं मिटता । ( अज्ञानी ) तोता बिना ही फंदेके खयं बंध जाता है, आप ही चौंगली पकडकर लटक रहता है । वह ( मूर्ख तोता ) सेमरके फूलकी आशा करता है; पर ज्यों ही उसमें चोंच मारता है उसे बिना गूदे- का फल मिलता है अर्थात् रूईके सिवा उसमें खाने के लिये कुछ भी नहीं मिलता, तब पछताता है (इसी प्रकार मनुष्य विषयरूपी चौंगली पकड़कर आप ही बचा रहता है तथा विषयोंसे सुखी होनेकी आशासे उनके बटोरने में लगा रहता है। परन्तु बिछुड़ते ही दुखी हो जाता है। ॥२॥ न तो मेरे पास कोई साधन है और न मझे कोई सिद्धि ही प्राप्त है । न मैं वैदिक विधियोको ही जानता है, न.