पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३३८

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३४३ विनय-पत्रिका गिने (न जाने इनके समान कितने पापियोंको अपना धाम दे दिया)। हे तुलसीदास ! बात तो यह है कि जानकीनाथ प्रभु रामचन्द्रजीने किस-किसको मुक्त नहीं कर दिया ( जिसने शरण ली, उसीको मुक्ति दे दी, फिर मुझे क्यों न देंगे?)॥ ३ ॥ [२१३ ] हरिस्सम आपदा-हरन । नहि कोउ सहज कृपालु दुसह दुख-सागर-तरन ॥ १ ॥ गज निज वल अवलोकि कमल गहि गयो सरन । दीन वचन सुनि चले गरुड़ तजि सुनाभ-धरन ॥ २ ॥ द्रुपदसुताको लग्यौ दुसासन नगन करन । 'हा हरि पाहि' कहत पूरे पट बिविध वरन ॥ ३ ॥ इहै जानि सुर-नर-मुनि-कोविद सेवत चरन । तुलसिदास प्रभु को न अभय कियो नृग उद्धरन ॥ ४ ॥ भावार्थ-भगवान् श्रीहरिके समान विपत्तियोंका हरनेवाला, सहज ही कृपा करनेवाला और दु.सह दुःखरूपी समुद्रसे तारनेवाला दूसरा कोई नहीं है ॥१॥ जब गजराज अपना वल (क्षीण हुआ) देखकर (भेंटके लिये ) कमलका फूल ले आपकी गरणमें गया तब उसके दीन वचन सुनकर सुदर्शनचक्र ले आप गरुड़को वहीं छोड़ तुरंत ही (पैदल दौड़ते हुए ) चले आये ॥ २ ॥ जब ( भरी सभामें) दुष्ट दुःशासन द्रौपदीका वस्त्र उतारने लगा, तब केवल उसके इतना कहनेपर ही कि 'हाय, भगवन् ! मेरी रक्षा कीजिये आपने विविध रंगोंकी साड़ियोंका ढेर लगा दिया ॥३(आपकी) इसी (दीनवत्सलता) को जानकर देवता, मनुष्य, मुनि और विद्वान् आपके चरणोंकी