पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३५२

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३५७ विनय-पत्रिका भापके सहश सद्गुणोंका समुद्र, सेवकों का कल्याण करनेवाला और कृपानिधान स्वामी अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलता ॥१॥ जहाँ-जहाँ लोभ और लालचत्रश चञ्चल चित्तमें अपने कल्याणकी कामना करता हूँ, वहाँ-वहाँसे मैं इस तरह निराश हो लौट आता हूँ, जैसे सूर्यको देखते ही उल्लू भटकता हुआ आकर वृक्षके कोटरमें घुस जाता है (जहाँ जिसके पास जाता हूँ, वहीं दुःखकी आग तैयार मिलती है )॥२॥ जब यह सुनता हूँ कि काल, खभाव और कर्म विचित्र फल देनेवाले हैं, तब सिर धुन-धुनकर रह जाता हूँ क्योंकि मेरे लिये तो ये तीनों सदो एक-से ही हैं, मैं तो सदा ही दुःसह और दारुण दाहसे जला करता हूँ॥ ३ ॥ हे नाथ ! मैं अबतक अपनेको अनाथ समझकर दुःखोंका पात्र बन रहा था सो उचित ही था, क्योंकि मैं आपका दास नहीं बना था; किन्तु हे शरणागतरक्षक ! अब आपका ( दास ) कहाकर भी मैं दुःख भोग रहा हूँ, इसका कारण समझमें नहीं आ रहा है. ॥४॥ हे महाराज' ! हे कमलनेत्र ! मैं पाप-सतापमें डूब रहा हूँ। हे प्रभो! तुलसीदासका तभी निर्वाह हो सकता है, जब आप ही जिस- किसी, प्रकारसे उसका निर्वाह करेंगे ॥५॥ [२२३] आपनो कबहुँ करि जानिहौ। । राम गराबनिवाज राजमनि, विरद-लाज उर आनिही ॥१॥ सील-सिंधु, सुंदर सब लायक, समरथ, सदगुन-खानि हो। पाल्यो है, पालत पालहुगे प्रभु, प्रनत-प्रेम पहिचानिही॥२॥ बेद-पुरान कहत, जग जानत, दीनदयालु दिन दानि हो। कहि भावत, बलि जाउँ, मनहुँ मेरी वार बिसारे वानि हो ॥३॥