विनय-पत्रिका ३५८ आरत-दीन-अनाथनिके हित मानत लौकिक कानि हो। है परिनाम भलो तुलसीको सरनागत-भय भानि हो॥४॥ भावार्थ-हे नाथ ! क्या कभी आप मुझे अपना समझेंगे? हे राम ! आप गरीबनिवाज और राजाधिराज हैं। क्या आप कभी अपने विरदकी लाजका मनमें विचार करेंगे ॥१॥ आप शीलके समुद्र हैं, सुन्दर हैं, सब कुछ करनेयोग्य हैं, समर्थ हैं और सभी सद्गुणोंकी खानि हैं। हे प्रभो ! आपने शरणागतोंका पालन किया है, कर रहे हैं और करेंगे। क्या इस (तुच्छ ) शरणागतका प्रेम भी पहिचानेंगे ॥२॥ वेद और पुराण कह रहे हैं तथा संसार मी जानता है कि आप दीनोंपर दया करनेवाले और प्रतिदिन उन्हें कल्याण-दान देनेवाले हैं । बाध्य होकर कहना ही पड़ता है, मैं आपकी बलैया लेता हूँ, आपने मानो मेरी वार अपनी आदतको ही भला दिया है।॥ ३ ॥ आप दीन, दुखियों और अनाथोंके हितू होनेपर भी क्या ससारका ( यह ) भय मान रहे हैं ? ( कि ऐसे पापीको अपनानेसे कहीं कोई अन्यायी न कह दे ।) जो कुछ भी हो, तुलसीदासका तो अन्तमें कल्याण ही होगा, क्योंकि आप शरणागतके भयको भजन करनेवाले हैं ॥४॥ . [२२४] रघुबरहि कबहूँ मन लागिहै ? कुपथ, कुचाल, कुमति, कुमनोरथ, कुटिल कपटकवत्यागिह॥२ जानतगरल अमिअ विमोहवस अमिअगनत करि आगि है। उलटी. रीति-प्रीति अपनेकी तजि प्रभुपद् अनुरागिहै॥२॥ आखर अरथ मंजु मृदु मोदक राम-प्रेम-पगि पागिई।
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