विनय-पत्रिका ऐसे गुन गाइ रिझाइ खामिसी पाइदै जो मुँह माँगिहे ॥३॥ तूयदि विधि सुप-सयन सोइ,जियकी जरनिभूरिभागिहै। रामप्रसाद दासतुलसी उर राम-भगति-जोग जागिहै ॥ ४॥ मावार्थ-अरे मन ! क्या कभी तू श्रीरघुनाथजीसे भी लगेगा! रे कुटिल ! तू कुमार्ग, बुरी चाल, दुर्बुद्धि, बुरी कामनाएँ और छल- कपट कर छोड़ेगा ? ॥ १॥ तू बड़े भारी अज्ञानके वश होकर (विश्यरूपी) विषको अमृत मान रहा है और ( भगवान्के भजनरूपी) अमृतको आगके समान (दुःखदायी) समझ रहा है । अपनी इस उलटी रीति और विषयोंकी प्रीतिकोत्याग कर तू श्रीरामजी- के चरणों में कब प्रेम करेगा ? ॥२॥ कब तू राम-नामके सुन्दर अक्षर और कोमल अर्थरूपी लड्डुओंको श्रीरघुनाथजीके प्रेमरूपी चाशनीमें पागेगा ? भाव यह कि क्या तु प्रेमपूरित हृदयसे कभी अर्थसहित श्रीराम-नामका जप करेगा ? जो तू इस तरह अपने खामीके गुणोंको गा-गाकर उन्हें रिझा लेगा, तो तुझे मुँह-माँगा पदार्थ मिल जायगा ॥ ३ ॥ इस प्रकार करनेसे तू ( मोक्षकी ) सुख- सेजपर सदाके लिये सो जायगा और तेरे मनकी (अविधाजनित) बड़ी भारी जलन (आत्यन्तिकरूपसे) भाग जायगी।हे तुलसीदास! श्रीरामजी- की कृपासे तेरे हृढयमें श्रीरामजीका प्रेमरूप भक्तियोग सिद्ध हो जायगा। [२२५] भरोसो और आइहै उर ताके। कै कहुँ लहै जो रामहि-सो साहिव, फै अपनो घल जाके ॥१॥ के कलिकाल कराल न सूझत, मोह-मार-मद 'छाके । कैसुनि-खामि-सुमाउनरह्यो चित, जोहित सय अँगथाके॥२॥
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३५४
दिखावट