विनय-पत्रिका - [२२८] प्रिय रामनामतें जाहि न गमो। ताको भलो कठिन कलिकालहुँ आदि मध्य-परिनामो ॥१॥ सकुचत समुझि नाम महिमा मद-लोभ मोह-कोह-कामो। राम-नाम-जप-निरत सुजन पर करत छह घोर घामो ॥२॥ नाम-प्रभाउ सही जो कहै कोउ सिला सरोरुह जामो।। जो सुनि-सुमिरिभाग-भाजन भइ सुरत सील भील-भामो ॥३॥ बालमीकि-अजामिलके कछु हुनो न साधन सामो। उलटे पलटे नाम महातम गुंजनि जितो ललामो॥४॥ राम ते अधिक नाम-करतब, जेहि किये नगर-गत गामो। भये वजाइ दाहिने जो जपि तुलसिदाससे वामो ॥ ५॥ 'भावार्थ-जिसे श्रीरामजी भी राम-नामकी अपेक्षा अधिक प्यारे नहीं हैं (यदि कोई कहे कि तुम्हें राम मिल जायेंगे, पर राम-नाम छोड़ना होगा, तो वह इस बातको भी स्वीकार नहीं करता । वह कहता है कि यदि श्रीरामके मिलनेसे राम-नाम छोड़ना पड़े तो मुझे श्रीरामके मिलनेकी आवश्यकता नहीं है । मुझे तो उनका नाम ही सदा चाहिये। ऐसे नाम-प्रेमीसे राम कितना प्रेम करते हैं, सो तो केवल राम ही जानते हैं। गोसाईजी कहते हैं कि जो इस प्रकार राम-नामका मतवाला है ) उसका इस कराल कलिकालमें, आदि,. म और अन्त, तीनों ही कालोंमें कल्याण होगा ॥१॥ नामकी महिमा समझकर अभिमान, लोभ, अज्ञान, क्रोध और काम सकुचा; जाते हैं, सामने नहीं आते । जो सज्जन सदा राम-नामका जप करते. रहते हैं, उनपर कडी धूप भी छाया कर देती है ,(महान-से महान
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