पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३७०

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विनय-पत्रिका निज अवगुन, गुन राम ! रावरे लखि-सुनि मति मन रुझै। रहनि-कहनि-समुहानि तुलसीकी को कृपालु बिनु बूझै ॥२॥ भावार्थ-हे नाथ | यदि इस जीवको अपना कल्याण आपके द्वारा होता दीख पड़े, तो यह जबतक शरीरपर सिर है तबतक (बिना सिरके ) कबन्धकी तरह क्यों लड़ता फिरे ? ( भगवान्की कृपाका भरोसा नहीं है, इसीसे तो सिर रहते हुए ही--सिरपर भगवान्के रहते हुए ही यह अपनेको मस्तकहीन मानकर- भगवान्को भुलाकर--अन्वेकी-ज्यों सुखके लिये हर किसीसे लड़ रहा है। परन्तु मस्तक विना--भगवान् के आधार बिना--न तो लडकर जीत ही सकेगा और न कल्याण ही होगा) ॥ १ ॥ अपने अगुण और आपके देवदुर्लभ गुणोंको देख-सुनकर, हे रामजी । मेरी बुद्धि और मन रुक जाते हैं । संकोच होता है कि ऐसे मलिन कर्मोवाला मैं आप सच्चिदानन्दघनके सामने कैसे जाऊँ । हे कृपालो ! तुलसीका आचरण, कथन और रहस्य आपको छोड़कर और कौन समझ सकता है ? ( आप इस दीनकी सारी स्थिति जानते हैं, अपनी कृपा-दृष्टिसे ही इसका उद्धार कीजिये) ॥ २॥ [२३९] जाको हरि दृढ़ करि अंग करयो। सोइ सुशील, पुनीत, वेदविद, विद्या गुननि भरयो॥१॥ उतपति पांडु-सुतनकी करनी सुनि सतपंथ डरयो। ते त्रैलोक्य-पूज्य पावन जस, सुनि-सुनि लोक तरयो॥ २॥ जो निज धरम वेदवोधित सो करत न कछु विसरयो। विनु अवगुन कृकलासकूप मजित कर गहि उधरयो॥३॥