पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३७४

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- ३७९ विनय-पत्रिका ही अवलौं करतुति निहारिय चितवत हुतो न रावर चेते। अव तुलसी पूतरोयाँधिहै, सहि न जात मोपै परिहास एते ॥५॥ भावार्थ-( जब अनेक दुष्टोंको परम गति दी है ) तब आप मुझ-सरीखे दुष्टोंको हठपूर्वक परम पद क्यों नहीं देते ? कोई भी पापी कैसे ही आपका नाम लेता हो, सुनते हैं साथ उसे आगे होकर ( अपनी गोदमे ले) लेते हैं, फिर मेरे ही लिये ऐसा क्यों नहीं करते ? ॥१॥ अजामिलको यमदूतोंने अपने मनमें पापोंकी खान समझ, तमककर भय दिखाते हुए उसे कष्ट दिया, किन्तु आपने उसे ( मरते समय धोखेसे, नारायण नाम लेनेपर हा ) उनके हायसे छुड़ा लिया। यमदूत हाथ मलते और क्रोधके मार दांत पीसते हुए खाली हाथ ही लौट गये ॥ २॥ गौतमकी स्त्री ( अहल्या ), गजराज, गीध ( जटायु), वृक्ष ( यमलार्जुन) और बंदर (सुग्रीत्र ) आदि कैसे थे । सो नाथको अच्छी तरह मालूम ९, परन्तु जब उन सबका काम पड़ा, तब आप सत-समाजको भी छाड़कर ( उनकी सहायताके लिये ) वहाँसे चल दिये ॥३॥ आज भी इस आपके दरवाजेपर ऐसोंका ही अधिक आदर है और न जाने कितने पापी नित्य पवित्र बनाये जाते हैं। ऐसा होते हुए । अबतक मेरी सुनाई क्यों नहीं हुई ? क्या मैं कम पापी हूँ? ससारमै जितने दुष्ट हुए हैं, और होंगे, वे सब तो मेरे पसगेमें भी पन होगे ॥ ४ ॥ अबतक तो मैं आपके करतबकी ओर टक । देख रहा था, ( बाट देखता था कि मेरा भी उद्धार कभी कर देंगे)। परन्तु आपने इधर कोई ध्यान नहीं दिया । इसलिये