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विनय-पत्रिका
मेरे मनसे कभी नहीं जाती ॥ २॥ मैं दुखी हूँ, आप दुःखोंके
दूर करनेवाले हैं। आपका यह यश वेद-पुराण गा रहे हैं। मैं
(जन्म-मृत्युरूप) संसारसे डरा हुआ हूँ और आप सब भय नाश
करनेवाले हैं। (आपके और मेरे इतने सम्बन्ध होनेपर भी ) क्या
कारण है कि आप मुझपर कृपा नहीं करते। ॥ ३ ॥ हे श्रीरामजी!
आप आनन्दके धाम तथा श्रमके नाश करनेवाले हैं और मैं संसार-
के तीनों (दैहिक, दैविक और भौतिक ) श्रमोंसे अत्यन्त ही दुखी
हो रहा हूँ। इन बातोंको अपने मनमें विचारकर तथा अपनी
प्रभुताको समझकर तुलसीदासको अपनी शरणमें रख ही लीजिये ॥४॥
[२४३]
यहै जानि चरनन्हि चित लायो।
नाहिन नाथ ! अकारनको हितु तुम समान पुरान-श्रुति गायो॥१॥
जननि-जनक, सुत-दार, बंधुजन भये बहुत जहँ-जहँ हो जायो।
सबखारथहित प्रीति,कपटचित, काहू नहिं हरिभजन सिखायो॥२॥
सुर-मुनि,मनुज दनुज, अहि-किन्नर मैंतनुधरि सिरकाहिननायो।
जरतफिरत त्रयताप पापवस,काहुन हरि!करि कृपा जुड़ायो॥३॥
जतन अनेक किये सुख-कारन हरि-पद,विमुख सदा दुख पायो।
अब थाक्योजलहीन नावज्यों देखत विपति-जाल जग छायो ॥४॥
मोकहँ नाथ! वृझिये, यह गति सुख निधान निज पति विसरायो।
अब तजिरोष करहुकरुना हरि तुलसिदास सरनागत आयो ॥५॥
भावार्थ-यही जानकर मैंने ( सब ओरसे हटाकर ) आपके
चरणोंमें चित्त लगाया है कि हे नाथ ! आपके समान, बिना ही
कारण, हित करनेवाला दूसरा कोई नहीं है, ऐसा वेद और पुराण
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३७६
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