पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३८१

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३८६ विनय-पत्रिका सतरंजको सो राज, काठको सवै समाज, महाराज वाजी रची, प्रथम न हति । तुलसी प्रभुके हाथ हारिवो-जीतिवो नाथ! बहु वेष, बहु मुख सारदा कहति ॥ ४॥ भावार्थ-छोटे-बड़े, बुरे-भले, मोंटे और दुबले, इन सबकी हे श्रीरामजी ! आपके ही निभानेसे निभती है—यह बात संसार और वेदोंमें प्रकट है। किन्तु इसे सुनकर और विचारकर भी मेरी मोहके वश हुई बुद्धि ऐसी व्याकुल हो रही है कि वह कभी स्थिर (निश्चयात्मिका) नहीं होती ॥ १ ॥ जो यह मेरे वशमें होती तो सदा एक रस ( निश्चयात्मिका ) ही रहती ( क्योंकि जीवात्मा नित्य परमात्मसुख ही चाहता है), फिर यह ससारके हर्ष, शोक और सङ्कटोंको क्यों सहती ( बुद्धि ईश्वरमुखी निश्चयात्मिका होनेपर) जो जिस वस्तुकी इच्छा करता, वही उसे मिल जाती। किसीकी कोई भी लालसा बाकी न रहती (परमात्माको प्राप्तकर जीव पूर्णकाम हो जाता ) ॥ २ ॥ किन्तु ऐसा है नहीं। जगत्में जीवके कर्म, काल, स्वभाव, गुण, दोप-ये सब आपकी मायासे हैं और वह माया मारे डरके भौंचक्की-सी होकर आपकी भूकुटिकी ओर ताकती रहती है ( आपके नचाये नाचती है)। यह माया शिव, ब्रह्मा और दिकपालों, योगीश्वरों और मुनीश्वरोंको आपके ही छुड़ानेसे छोडती है और आपके ही पकड़ानेसे पकड़ लेनी है ॥ ३ ॥ इस मायाका सारा समाज शतरंजका-सा राज्य है ( असत् है), सब काठका बना है ( असलमें न कोई राजा है न वजीर)। हे महाराज ! शतरंज- की यह वाजी आपहीकी रची हुई है, यह पहले नहीं थी।