विनय-पत्रिका
[२५३]
राम ! राखिये सरन, राखि आये सव दिन ।
विदित त्रिलोक तिहुँ काल न दयालु दूजो,
आरत-प्रनत-पाल को है प्रभु बिन ॥ १॥
लाले पाले, पोषे तोषे आलसी-अभागी-अघी,
नाथ ! पै अनाथनिसो भये न उरिन ।
खामी समरथ ऐसो, हौं तिहारो जैसो-तैसो
काल-चाल हेरि होति हिये घनी घिन ॥ २॥
खीझि-रीझि, विहँसि-अनख, क्यों हूँ एक बार
'तुलसी तू मेरो', वलि, कहियत किन ?
जाहिं सूल निरमूल, होहिं सुख अनुकूल,
महाराज राम ! रावरी सौं, तेहि छिन ॥ ३॥
भावार्थ-हे श्रीरामजी! मुझे अपनी ही शरणमें रखिये, क्योंकि
(मुझ-सरीखोंको) सदासे आप ही अपनाते आये हैं । यह सभी
जानते हैं कि तीनों लोकों और तीनों कालोंमें आपके समान दयाल
दूसरा कोई नहीं है। हे नाथ ! आत-शरणागतोंकी रक्षा करनेवाला
आपके सिवा दूसरा कौन है ? ॥१॥ आपने ही आलसी, अभाग
और पापी लोगोंका लालन-पालन किया, उन्हें पाला-पोसा और प्रसन्न
रक्खा; तिसपर भी हे नाय ! आप उनसे कभी उऋण नहीं हुए
हे स्वामी ! आप तो समर्थ हैं। पर मैं ( भला-बुरा ) जैसा कुछ हूँ
आपहीका हूँ। कलिकालकी चालें देखकर मेरे हृदयमें बड़ी घिन है
रही है ( यह शङ्का है कि कहीं यह दुष्ट आपके चरणोंकी ओर
मेरे मनको फेर न दे। ॥२॥ बलिहारी ! एक वार नाराजी
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३९३
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