पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४००

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- विनय-पत्रिका गाडीके खानकी नाई, माया मोहकी पढ़ाई छिनहिं तजत, छिन भजत बहोरि हो ॥२॥ बड़ो साई-द्रोही न बरावरी मेरीको कोऊ, नाथकी सपथ किये कहत करोरि हो। दूरि कीजै द्वारतें लबार लालची प्रपंची, सुघा-सो सलिल सूकरी ज्यों गहडोरिहौ ॥३॥ राखिये नीके सुधारि, नीचको डारिये मारि, . दुहूँ ओरकी विचारि, अब न निहोरिहौं । तुलसी कही है साँची रेख बार-बार खॉची, ढील किये नाम-महिमाकी नाव बोरिहौं ॥४॥ भावार्थ-हे कृपानिधान ! मैंने जान-पहचानकर भी आपको मुला दिया है और घमंडके मारे इतना ढीठ हो गया हूँ कि उलटा आपहीपर दोष मढ़ता हूँ (कि आप शीलसिन्धु होकर भी मुझे अपनाते नहीं हैं)। जिससे प्रीति जोड़नेके लिये बड़े-बड़े योगी यत्न किया करते हैं, उससे ज्यों-त्यों करके कुछ प्रीति जुड गयी थी, पर मैं अभागा उसे भी तोड़ बैठा ॥ १ ॥ मुझ-सरीखा पापोंका खजाना चौदहों लोकोंमें दूसरा नहीं है, अपनी समझमें मैं खूब ढूँढ़ चुका हूँ। जैसे गाड़ीके पीछे लगा हुआ कुत्ता कभी तो गाडीको छोड़कर इधर- उधर भाग जाता है और कभी फिर उसके साथ हो लेता है, वैसे ही मैं क्षणभरमें तो मायामोहके बड़प्पनको छोड़ बैठता हूँ और दूसरे ही क्षण फिर उसीमें रम जाता हूँ॥२॥ मैं आपकी करोड़ों शपथ खाकर कह रहा हूँ कि खामीके साथ द्रोह करनेवाला मेरी बराबरीका दूसरा कोई भी नहीं है। इसलिये मुझ झूठे, लालची और ठगको