विनय-पत्रिका दरवाजेसे हटा दीजिये, नहीं तो मैं अमृत-सरीखा जल शूकरीकी तरह गेंदला कर डालूंगा ( आपका भक्त कहाकर बुरे कर्म करूंगा तो आपके निर्मल यशमें कल लग जायगा) ॥ ३ ॥ ( अतएव) या तो मुझे अच्छी तरह सुधारकर ( अपनी शरणमें ) रख लीजिये, नहीं तो मुझ नीचको मार ही डालिये। वस, अब आप ही इन दोनों वातोंपर विचार कर लीजिये, अब मैं आपका निहोरा न करूंगा। तुलसीने बारम्बार लकीर खींचकर सच्ची बात कह दी है। यदि आप भी देरी करेंगे, तो मैं आपके नामकी महिमारूपी नौकाको डुबा दूंगा। (मेरी दुर्दशा देखकर लोग आपके नामका विश्वास छोड़ देंगे)॥४॥ [२५९] रावरी सुधारी जो विगारी विगरैगी मेरी, कहीं, बलि, वेदकी न, लोक कहा कहेगो ? प्रभुको उदास-भाउ, जनको पाप-प्रभाउ, दुहूँ भाँति दीनवन्धु । दीन दुख दहेगो॥१॥ मैं तो दियो छाती पवि, लयो कलिकाल दवि, साँसति साहत, परवस को न सहेगो? बांकी विरुदावली बनेगी पाले ही कृपालु! अंत मेरो हाल हेरि यौँ न मन रहैगो॥ २॥ करमी-घरमी, । साधु-सेवक, विरत-रत, आपनी भलाई थल कहाँ कौन लहंगो ? तेरे मुँह फेरे मोले कायर-कपूत-कूर, ' लटे 'लटपटेनि को कौन परिगहेगी? ॥३॥ काल पाय: फिरत दसा दयालु ! सवहीकी, . र तोहि. विनु मोहि कवहूँ न कोऊ बहेगो। ,