पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४०७ विनय-पत्रिका वचन-करम-हिये कहाँ राम ! सौह किये, तुलसी पै नाथके निवाहेई निबगो ॥४॥ भावार्थ-यदि आपकी सुधारी हुई मेरी बात मेरे बिगाड़नेसे बिगड़ जायगी तो मैं तुम्हारी बलैया लेता हूँ, फिर वेदकी तो जाने दीजिये, संसार क्या कहेगा ? ( वेदमें कुछ भी लिखा हो, संसार तो यही कहेगा कि तुलसी ही ईश्वर है, क्योंकि उसने रामजीकी बनायी बातको बिगाड़ दिया।) प्रभुकी उदासीनता और मुझ दासके पापोंका प्रभाव, यदि ये दोनों मिल गये तो हे दीनबन्धो! यह दीन दुःखके मारे जल मरेगा । मैं तो महापापी हूँ ही, पर - आप भी उदासीन हो जायेंगे तो फिर मेरी बड़ी ही बुरी गति होगी ॥ १॥ मैंने तो अपनी छातीपर वज्र रख लिया है (दुःख सहनेके लिये तैयार हूँ, परंतु पाप नहीं छोड़ता ) क्योंकि कलियुगने मुझे दबा रक्खा है। इसीसे कष्ट सह रहा हूँ। (मैं ही क्यों) जो भी परतन्त्र होगा, उसे कष्ट सहने ही पडेंगे । किन्तु हे कृपालु ! आपको तो अपनी बाँकी विरदावलीके वश होकर मेरी रक्षा करनी ही पड़ेगी। ( अभी न सही) अन्त समय तो मेरा (बुरा) हाल देखकर आपका यह उदासीन भाव रह नहीं सकता ( दयालु खभावसे मेरा दुःख देखा ही नहीं जायगा, तब दौडकर बचाना होगा)॥ २०॥ कर्मकाण्डी, धर्मात्मा, साधु, सेवक, विरक्त और विषयी जीव-ये सब तो अपने-अपने भले कोंके अनुसार कहीं कोई-सा स्थान पा ही जायेंगे, परन्तु आपके मुँह फेर लेनेसे ( उदासीन हो जानेसे.) मुझ-सरीखे कायर, कुपूत, क्रूर, साधनहीन और पतित जीवोको कौन आश्रय देगा ( कोई भी नहीं)॥३॥ हे दयालो ।