विनय-पत्रिका
४०८
काल पाकर सभीकी दशा पलटती है, सभीके दिन फिरते हैं, परन्तु
आपको छोड़कर मुझे तो कभी कोई नहीं चाहेगा ( आपके आश्रयको
छोडकर मुझे कहीं कोई स्थान नहीं मिलनेका)। हे श्रीरामजी !
आपकी शपथ खाकर वचन, कर्म और मनसे कहता हूँ कि यह
तुलसी तो नाथके ही निबाहे निभेगा ॥ ४ ॥
[२६०]
साहिब उदास भये दास खास खीस होत
मेरी कहा चली ? हो वजाय जाय रह्यो हो।
लोकमें न ठाउँ, परलोकको भरोसो कौन ?
हौं तो, वलि जाउँ रामनाम ही ते लहो हाँ॥१॥
करम, सुभाउ, काल, काम, कोह, लोभ, मोह-
• . ग्राह अति गहनि गरीवी गाढ़े गह्यो हो।
छोरिबेको · महाराज, वॉधिवेको कोटि भट,
पाहि प्रभु ! पाहि, तिहुँ ताप-पाप दह्यो हौं ॥ २॥
रीझि-बूझि सवकी प्रतीति-प्रीति यही द्वार,
दूधको जरयो पियत पूँकि फूकि मह्यो हौं ।
रटत-रटत लट्यो, जाति-पाति-भाँति घट्यो,
" जूठनिको लालची चही न दूध-नह्यो हो ॥३॥
अनत चह्यो न भलो सुपथ सुचाल चल्यो
1. नीके जिय जानि इहाँ भलो अनचो हो।
तुलसी समुझि समुझायो मन बार बार,
___ अपनो सो नाथ हू सो कहि निरबह्यो हौं ॥४॥
भावार्थ-जब मालिक उदासीन हो जाता है तब खास नौकर
भी बरबाद हो जाता है, फिर मेरी तो बात ही क्या है ! मैं तो
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४०३
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