पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४१७

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विनय-पत्रिका ४२२ सुतकी प्रीति, प्रतीति मीतकी, नृप ज्यों डर डरिहे। अपनो सो खारथ स्वामिसो, चहुँ विधि चातक ज्यो एक टेकत नहिं टरिहै ॥२॥ हरषिद न अति आदरे, निदरे न जरि मरिहै। हानि-लाभ-दुख-सुख सबै समचितहित अनहित, कलि-कुचालि परिहरिहै ॥३॥ प्रभु-गुन सुनि मन हरषिहै, नीर नयननि ढरि। . तुलसिदास भयो रामको, विखास, प्रेम लखि आनंद उमगि उरभरिहै॥४॥ भावार्थ-जब मेरा मन ( आपकी ओरको) फिर जायगा, तभी मैं समझूगा कि आपने मुझे अपना लिया। जब यह मन, जिस सहज खभावसे ही विषयों में लग रहा है उसी प्रकार कपट छोड़कर आपके साथ प्रेम करेगा (जबतक ऐसा नहीं होता तबतक मैं कैसे समझे कि मुझको आपने अपना दास मान लिया ) ॥१॥ जैसे मेरा वह मन पुत्रसे प्रेम करता है, मित्रपर विश्वास करता है और राजभयसे उरता है, वैसे ही जब वह अपना सब खार्थ केवल स्वामीसे ही रक्खेगा और चारों ओरसे चातककी तरह अपनी अनन्य टेकसे नहीं टलेगा (एक प्रभुपर ही निर्भर करेगा) ॥२॥ अत्यन्त आदर पानेपर जब उसे हर्ष न होगा, निरादर होनेपर वह जलकर न मरेगा और हानि-लाम, सुख-दुःख, भलाई-बुराई सबमें चित्तको सम रक्खेगा और कलिकालकी कुचालोंको ( सर्वया ) छोड़ देगा ( तभी मानगा कि नाथ मुझे अपना रहे हैं)॥ ३॥ और जब मेरा मन प्रभुका गुणानुवाद सुनते ही हर्षमें विह्वल हो जायगा, मेरे नेत्रोंसे प्रेमके