विनय-पत्रिका ४६८ २२०-परीछितहि पछिताय-- एक वार महाराज परीक्षित् शिकार खेलते-खेलते निर्जन वनमें निकल गये । वहाँ उन्होंने देखा कि एक काला पुरुष मूसल हायमें लिये एक गाय और एक लँगडे वैठको खदेड रहा है । जब पूछनेपर मालूम हुआ कि वह काला पुरुष कलियुग है और उसके भयसे पृथ्वी गाय और धर्म वैलका रूप धारणकर भाग रहे हैं, तो महाराजने क्रोधित होकर तलवार निकाल ली और कलियुगको मारनेके लिये दौडे । इसपर वह काला पुरुष भयभीत होकर महाराजके चरणोंपर गिर पडा। महाराजने उसे शरणागत जानकर छोड दिया और चौदह स्थानोंमे रहनेके लिये उसे अभय कर दिया। उन स्थानोंमे एक खर्ण भी था । महाराजके सिरपर सोनेका मुकुट था, इसलिये कलिने उसपर अपना आसन जमाया। महाराज जब उधरसे लौटे तो भूख-प्याससे व्याकुल हो एक ध्यानावस्थित ऋषिके आश्रममे पहुंचे और ऋषिको पुकारने लगे। जब कुछ उत्तर न मिला तो महाराज ऋषिको पाखण्डी समझकर उनके गलेमें एक मरा हुआ सर्प डालकर वहॉसे चले गये । जव उस ऋषिके पुत्रको यह समाचार मालूम हुआ तो उसने शाप दिया कि ध्यानावस्थित मेरे पिताके गलेमें मृत सर्प डालकर तिरस्कार करनेकी चेष्टा करनेवाला मदान्ध राजा आजसे सातवें दिन तक्षक सर्पके काटनेसे मर जायगा। महाराजा परीक्षित्को जब यह समाचार मालूम हुआ तो उन्हें अपनी भूलपर बडा पश्चात्ताप हुआ और वह सात दिनतक श्रीमद्भागवतका सप्ताह पाठ सुनकर सातवें दिन तक्षक सर्पके काटे जानेपर खर्गारोहण कर गये । यह कथा श्रीमद्भागवतमें लिखी है।
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