विनय-पत्रिका
यदिछोर विरुदावली, निगमागम गाई।
नीको तुलसीदासको, तेरियै निकाई ॥ ६ ॥
भावार्थ-जब सकट पड़ता है, तभी अपने सामीको भला-बुरा
कहा जाता है, और अच्छे स्वामी यह समझ-बूझकर अपनी भलाई मे
उस बुरे सेवकका भी भला कर देते है ॥ १॥ समर्थ, कन्याणकारी
और ऐसे शूरवीरको पाकर जो दूसरोंकी विपत्तिमें सहायता देता है,
सब लोग उस ओर ऐसे देखा करते हैं, जैसे समुद्रके पास नदियों
बिना बुलाये ही दौड़-दौड़कर जाती हैं ॥ २ ॥ ससारमें सभी स्त्री-
पुरुष अपनी-अपनी भलाई चाहते हैं, शुभ-अशुभके नातेसे जो
( देवता ) जिसको अच्छा लगता है, वह उसी ( देवता ) को भजता
है। मुझे तो एक तुम्हारा ही भरोसा है ॥ ३ ॥ जिसे जबरदस्ती
अपने बलका भरोसा देकर रख लिया वह यदि तुम्हारी सेवा नहीं
करता तो भी उसे सेवककी तरह पालना चाहिये ॥ ४॥ भूल
और चञ्चलता तो सब मेरी ही है, पर तुम बडे हो, मुझ-जैसे
अपराधियोंको क्षमा करनेमें ही तुम्हारी बडाई है । यह तो सभी जानते
हैं कि आदर करनेसे नीच भी ढीठ हो जाता और नीचता करने
लगता है ॥ ५॥ तुम बन्धनोंसे छुडानेवाले हो- तुम्हारा ऐसा
सुयश वेद-शास्त्र गाते हैं। मुझ तुलसीदासका भला अब तुम्हारी
भलाईसे ही होगा, अन्यथा मैं तो किसी भी योग्य नहीं हूँ ॥६॥
राग गौरी
[३६]
भंगल-मूरति मारुत-नंदन । सकल-अमंगल-मूल-निकंदन ॥१॥
पवनतनय संतन हितकारी। हृदय विराजत अवध-विहारी॥२॥
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/६१
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