विनय पत्रिका [४७] ऐसी आरतीराम रघुवीरकी करहि मन । हरन दुखदुंद गोविंद आनन्दधन ॥ १॥ अचरचर रूपहरि,सरबगत,सरवदावसत,इति वासनाधूप दीजै । दीप निजबोधगत-कोह-मद-माह-तम, प्रौढ़ अभिमान चितवृत्ति छीजे ॥२॥ भाव अतिशय विशद प्रवर नैवेद्य शुभ थीरमण परम संतोपकारी। प्रेम-तांबूल गत शूल संशय सकल, विपुल भव-यासना- चीजहारी ॥३॥ अशुभ-शुभकर्म-घृतपूर्ण दश वर्तिका, त्याग पावक, सतोगुण ____प्रकासं। भक्ति-वैराग्य-विज्ञान दीपावली अर्पि नीराजनं जगनिवासं ॥४॥ विमल हृदि-भवन कृत शांति-पर्यक शुभ, शयन विश्राम श्रीरामराया। क्षमा करुणाप्रमुख तत्रपरिचारिका,यत्र हरितत्र नहि भेद,माया।५। एहि आरती-निरत सनकादि, श्रुति, शेष, शिव, देवरिपि, अखिलमुनि तत्वदरसी। करै सोइ तरै, परिहरै कामादि मल, वदति इति अमलमति दास तुलसी॥६॥ भावार्थ-हे मन । रघुकुल-वीर श्रीरामचन्द्रजीकी इस प्रकार आरती कर । वे राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों तया दु खोंके नाशक, इन्द्रियोंका नियन्त्रण करनेवाले और आनन्दकी वर्षा करनेवाले हैं ॥ १ ॥ जड़- चेतन जगत् सब श्रीहरिका रूप है, वे सर्वव्यापी और नित्य हैं । इस
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