पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/८४

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विनय-पत्रिका वासना (सुगन्ध) की उनकी धूप कर। इससे तेरी भेदरूप दुर्गन्ध मिट जायगी। धूपके बाद दीप दिखाना चाहिये, सो आत्मज्ञानका स्वयं प्रकाशमय दीपक जलाकर उससे क्रोध, मद, मोहके अन्धकारका नाश कर दे। इस ज्ञान-प्रकाशसे अभिमानभरी चित्तवृत्तियाँ आप ही क्षीण हो जायँगी ॥ २॥ इसके बाद अत्यन्त निर्मल श्रेष्ठभावका नैवेध भगवान् के अर्पण कर । विशुद्ध भावका सुन्दर नैवेद्य लक्ष्मीपति भगवान्को परम सन्तोषकारी होगा। फिरदुख, समस्त सन्देह और अपार संसारकी वासनाओंके बीजके नाश करनेवाले 'प्रेम' का ताम्बूल भगवान्के निवेदन कर ॥ ३॥ तदनन्तर शुभाशुभ कर्मरूपी घृतमें डूबी हुई दस इन्द्रियरूपी बत्तियोंको त्यागकी अग्निसे जलाकर सत्त्वगुणरूपी प्रकाश कर; इस तरह भक्ति, वैराग्य और विज्ञानरूपी दीपावलीकी आरती जगनिवास भगवान्के अर्पण कर ॥ ४ ॥ आरतीके वाद निर्मल हृदय- रूपी मन्दिरमें शान्तिरूपी सुन्दर पलग बिछाकर उसपर महाराज श्रीरामचन्द्रजीको शयन करवाकर विश्राम करा । वहाँ महाराजकी सेवाके लिये क्षमा, करुणा आदि मुख्य दासियों को नियुक्त कर । जहाँ भगवान् हरि रहते हैं, वहाँ भेदरूप माया नहीं रहती ॥५॥ सनकादि, वेद, शुकदेवजी, शेष, शिवजी, नारदजी और सभी तत्त्वदर्शी मुनि ऐसी आरतीमें सदा लगे रहते हैं, निर्मलमति मुनियोंका दास तुलसी कहता है कि जो कोई ऐसी आरती करता है वह कामादि विकारोंसे छूटकर इस भवसागरसे तर जाता है ॥६॥ [४८] हरति सव आरती आरती रामकी। दहन दुख-दोप, निरमूलिनी कामकी ॥१॥