पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/११९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७६ ] महावग्ग [ १९११३ "जब धर्म होते जग प्रकट, सोत्साह ध्यानी विप्र (ब्राह्मण) को। तब शांत हों कांक्षा सभी, देखे स-हेतू धर्मको॥" फिर भगवान्ने रातके मध्यम-याममें प्रती त्य - स मु त्पा द को अनुलोम-प्रतिलोमसे मनन किया।-"अविद्याके कारण संस्कार होता है० दुःख पुंजका नाश होता है"। भगवान्ने इस अर्थको जान- कर उसी समय यह उदान कहा-- "जब धर्म होते जग प्रकट, सोत्साह ध्यानी विप्रको। तव शांत हों कांक्षा सभीही जान कर क्षय-कार्यको ॥" फिर भगवान्ने रातके अन्तिम-याममें प्रतीत्य-समुत्पादको अनुलोम-प्रतिलोम करके मनन किया।-"अविद्या० केवल दुःख-पुंजका नाश होता है"। भगवान्ने इस अर्थको जानकर उसी समय यह उ दान कहा- "जब धर्म होते जग प्रकट, सोत्साह ध्यानी विप्रको ठहरै कँपाता मार-सेना, रवि प्रकाशै गगन ज्यों ॥" बोधिकथा समाप्त । (२) अजपाल कथा सप्ताह बीतनेपर भगवान् उस समाधिसे उठकर, वो धि वृक्ष के नीचेसे वहाँ गये, जहाँ अ ज पाल नामक वर्गदका वृक्ष था, वहाँ पहुँचकर अजपाल वर्गदके वृक्षके नीचे सप्ताह भर मोक्षका आनंद लेते हुए, एक आसनसे वैठे रहे। उस समय कोई अभिमानी ब्राह्मण, जहाँ भगवान् थे, वहाँ आया। पास आकर भगवान्के साथ.... .(कुशलक्षेम पूछ)....एक ओर खळा होगया। एक ओर खळे हुए उस ब्राह्ममणने भगवान्से यों कहा-“हे गौतम ! ब्राह्मण कैसे होता है ? ब्राह्मण वनानेवाले कौनसे धर्म है" ? भगवान्ने इस अर्थको जानकर, उसी समय यह उ दा न कहा- "जो विप्र बाहित-पाप मल-अभिमान-बिनु संयत रहे। वेदांत-पारग; ब्रह्मचारी ब्रह्मवादी धर्मसे । सम नहिं कोई जिससा जगत् (में)।" (३) मुचलिन्द कथा फिर सप्ताह बीतनेपर भगवान् उस समाधिसे उठ, अ ज पाल वर्गदके नीचेसे वहाँ गये, जहाँ मु च लिं द ( वृक्ष) था। वहाँ पहुँचकर मु च लिं दके नीचे सप्ताह भर मोक्षका आनन्द लेते हुए एक आसनसे वैठे रहे। उस समय सप्ताह भर अ-समय महामेघ, (और) ठंडी हवा-वाली बदली पळी । तब मु च लिन्द नाग-राज अपने घरसे निकलकर भगवान्के शरीरको सात बार अपने देहसे लपेटकर, शिरपर वळा फण तानकर खळा हो गया जिसमें कि भगवान्को शीत, उप्ण, ईस, मच्छर, वात, धूप तथा रेंगनेवाले जन्तु न छूवें। सप्ताह बाद म च लि न्द नागराज आकाशको मेघ-रहित देख, भगवान्के शरीरसे (अपने) देहको हटाकर (और उसे) छिपाकर, बालकका रूप धारणकर भगवान्के सामने खळा हुआ। भगवान्ने इसी अर्थको जानकर उसी समय यह उ दा न कहा- "सन्तुष्ट देखनहार श्रुतधर्मा, सुखी एकान्तमें। निर्द्वन्द्व सुख है लोकमें, संयम जो प्राणी मात्रमें ॥ सव कामनायें छोळना, वैराग्य है सुख लोक में। है परम सुख निश्चय वही, जो साधना अभिमानका ॥