वुद्धत्त्व लाभ १९११५ ] [ ७७ (४) राजायतन कथा सप्ताह बीतनेपर भगवान् फिर उस समाधिसे उठ, मु च लिं दके नीचेसे वहाँ गये, जहाँ रा जा- य त न (वृक्ष) था। वहाँ पहुँचकर रा जा य त नके नीचे सप्ताह भर मोक्षका आनन्द लेते हुए एक आसनसे वैठे रहे । उस समय त प स्सु और भल्लि क, (दो) बनजारे उ त्क ल देश से उस स्थानपर पहुंचे। उनकी जात-विरादरीके देवताने त प स्सु, भल्लि क बनजारोंसे कहा--"मार्प (मित्र)! बुद्धपदको प्राप्त हो यह भगवान् रा जा य त नके नीचे विहार कर रहे हैं । जाओ उन भगवान्को मठे (-मन्थ) और लड्डू (= मधु- पिड)से सम्मानित करो, यह (दान) तुम्हारे लिये चिरकाल तक हित और सुखका देनेवाला होगा। तब तपस्सु और भल्लिक बनजारे मट्ठा और लड्डू ले जहाँ भगवान् थे वहाँ गये। पास जाकर भगवान्को अभिवादनकर एक तरफ खड़े हो गये । एक तरफ खड़े हुए तपस्सु और भल्लिक वनजारोंने यह कहा- "भन्ते ! भगवान् ! हमारे मट्टे और लड्डुओंको स्वीकार कीजिये, जिससे कि चिरकाल तक हमारा हित और सुख हो।" उस समय भगवान्ने सोचा-"तथागत (भिक्षाको) हाथमें नहीं ग्रहण किया करते; मैं मट्ठा और लड्डू किस (पात्र) में ग्रहण करूँ।" तब चारों म हा रा जा भगवान्के मनकी वात जान, चारों दिशाओंसे चार पत्थरके (भिक्षा-) पात्र भगवान्के पास ले गये-“भन्ते ! भगवान् ! इसमें मट्ठा और लड्डू ग्रहण कीजिये।" भगवान्ने उस अभिनव शिलामय पात्रमें मट्ठा और लड्डू ग्रहणकर भोजन किया। उस समय तपस्सु, भल्लिक बनजारोंने भगवान्से कहा--'भन्ते ! हम दोनों भगवान् तथा धर्म- की शरण जाते हैं। आजसे भगवान् हम दोनोंको अंजलिबद्ध गरणागत उपासक जानें।" संसारमें वही दोनों (बुद्ध और धर्म) दो वचनों-से प्रथम उपासक हुए।' (५) ब्रह्मयाचन कथा सप्ताह बीतनेपर भगवान् फिर उस समाधिसे उठ, रा जा य त न के नीचेसे जहाँ अ ज पा ल वर्गद था, वहाँ गये। वहाँ अजपाल वर्गदके नीचे भगवान् विहार करने लगे। तव एकान्तमें ध्यानावस्थित भगवान्के चित्तमें वितर्क पैदा हुआ-"मैने गंभीर, दुर्दर्शन, दुर्-जेय, शांत, उत्तम, तर्कमे अप्राप्य, निपुण, पण्डितों द्वारा जानने योग्य, इस धर्मको पा लिया। यह जनता काम-तृप्णा (=आलयमें) रमण करने 'इस प्रकार (वैशाख पूर्णिमाके दूसरे दिन) प्रतिपद्की रातको यह मनमें कर (१) बोधि वृक्षके सप्ताह भर एक आसनसे बैठे।....तब भगवान्ने आठवें दिन समाधिसे उठ.... .(२) (वय-)आसनसे थोरा पूर्व लिये उत्तर दिशामें खड़े हो.... (वय-)आसन और बोधि वृक्षको, विना पलक गिराये (= (=अनि- मेष) नेत्रोंसे देखते सप्ताह बिताया। वह स्थान अनिमेष चैत्य नामवाला हुआ। फिर (३) (वन-)- आसन और खड़े होने (अनिमेष चैत्य) के स्थानके बीच, पूर्वसे पश्चिम लम्बे रत्न-दंक्रम ( रत्नमय व्हलनेयेः रथान) पर टहलते सप्ताह दिताया, दह रत्न-वंक्रम नैत्य नामवाला हुआ। उसके पश्चिम- दिशामे देवताओंने रत्नपर दनाया। वहाँ आसन मार दैट अभिधर्म-पिटक.....पर विचार करते सप्ताह दिलाया। दा. स्थान रत्नघर-चत्य नामदाला हुआ। इस प्रकार दोधिके पास चार सप्ताह दिता, पाँचवें नालाह बोधिवक्षरो जहाँ (५) अजपाल न्यग्रोध , (भगवान्) दहाँ गये। उन न्यग्रोध (दर्गद) के ती टकनी बगनेवाले (=अजपाल) जाकर बैठते थे, इसलिये उनका अगपाल न्यग्रोध नाम हुआ ।... गोपने पूर्वदिशाने यह दस था।.... (६) मुलिन्द दृक्षक पास दाली करितीम उत्पन्न यह दिव्य महादोधिने पूर्दकोषने स्थित (जग) मरहिन्द दक्षने.....(s) दक्षिा Scam भिन्न राजापतन दक्षय पान गए। (-अट्टका) पहनानी नामगज था।...
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