. ७८ ] महावग्ग [ १०१५ वाली काम-रत काममें प्रसन्न है। काममें रमण करनेवाली इस जनताके लिये, यह जो कार्य का रण रूपी प्रती त्य - स मु त्पा द है, वह दुर्दर्शनीय है; और यह भी दुर्दर्शनीय है, जो कि यह सभी संस्कारों- का शमन, सभी मन्त्रोंका परित्याग, तृष्णाका क्षय, विराग, निरोध (=दुख-निरोध), और निर्वाण है। मैं यदि धर्मोपदेश भी करूँ और दूसरे उसको न समझ पावें, तो मेरे लिये यह तरबुद, और पीड़ा (मात्र) होगी। उसी समय भगवान्को पहिले कभी न सुनी, यह अद्भुत गायायें सूझ पड़ीं- "यह धर्म पाया कष्टसे, इसका न युक्त प्रकाशना । नहिं राग-द्वेष-प्रलिप्तको है सुकर इसका जानना । गंभीर उल्टी-धारयुत दुर्दृश्य सूक्ष्म प्रवीणका। तम-पुंज-छादित रागरतद्वारा न संभव देखना ॥" भगवान्के ऐसा समझनेके कारण, (उनका) चित्त धर्मप्रचारकी ओर न झुककर अल्प-उत्सु- कताकी ओर झुक गया। तव स हा प ति ब्र ह्मा ने भगवान्के चित्तकी वातको जानकर ख्याल किया- "लोक नाश हो जायगा रे ! जब तथागत अर्हत् सम्यक् संबुद्धका चित्त धर्म-प्रचारकी ओर न झुक, अल्प- उत्सुकता (=उदासीनता) की ओर झुक जाये।" (ऐसा ख्यालकर) सहापति ब्रह्मा, जैसे वलवान् पुरुप (बिना परिश्रम) फैली बाँहको समेंट ले, समेटी वाँहको फैलादे, ऐसे ही ब्रह्मलोकसे अन्तर्धान हो, भगवान्के सामने प्रकट हुए। फिर सहा- पति ब्रह्माने उपरना (चद्दर) एक कंधेपर करके, दाहिने जानुको पृथिवीपर रख, जिधर भगवान् थे उधर हाथ जोड़, भगवान्से कहा-“भन्ते ! भगवान् धर्मोपदेश करें,सुगत ! धर्मोपदेश करें। अल्प- मलवाले प्राणी भी हैं, धर्मके न सुननेसे वह नष्ट हो जायेंगे। (उपदेश करें) धर्मको सुननेवाले (भी होवेंगे)" सहापति ब्रह्माने यह कहा, और यह कहकर यह भी कहा- "मगधमें मलिन चित्तवालोंसे चिन्तित, पहिले अशुद्ध धर्म पैदा हुआ। (अब दुनिया) अमृतके द्वारको खोलनेवाले विमल (पुरुष) से जाने गये इस धर्मको सुने। "पथरीले पर्वतके शिखरपर खड़ा (पुरुप) जैसे चारों ओर जनताको देखे। उसी तरह हे सुमेध ! हे सर्वत्र नेत्रवाले ! धर्मरूपी महलपर चढ़ सब जनताको देखो। "हे शोक-रहित ! शोक-निमग्न जन्मजरासे पीळित जनताकी ओर देखो। उठो वीर ! हे संग्रा- मजित् ! हे सार्थवाह ! उऋण-ऋण ! जगमें विचरो, धर्मप्रचार करो, भगवान् ! जाननेवाले भी मिलेंगे।" तव भगवान्ने ब्रह्माके अभिप्रायको जानकर, और प्राणियोंपर दया करके, बुद्ध-नेत्रसे लोकका अवलोकन किया। बुद्ध-चक्षुसे लोकको देखते हुए भगवान्ने जीवोंको देखा, उनमें कितने ही अल्प- मल, तीक्ष्ण-बुद्धि, सुन्दर-स्वभाव, समझानेमें सुगम प्राणियोंको भी देखा । उनमें कोई कोई परलोक और दोपसे भय करते, विहर रहे थे। जैसे उत्पलिनी, पद्मिनी (=पद्मसमुदाय) या पुंडरीकिनीमें से कितने ही उत्पल, पद्म या पुंडरीक उदकमें पैदा हुए उदकमें बँधे उदकसे वाहर न निकल (उदकके) भीतर ही डूवकर पोपित होते हैं । कोई कोई उत्पल (नीलकमल), पद्म (रक्तकमल), या पुंडरीक (श्वेतकमल) उदकमें उत्पन्न, उदकमें बँधे (भी) उदकके वरावर ही खड़े होते हैं। कोई कोई उत्पल, पद्म या पुंडरीक उदकमें उत्पन्न, उदकसे बँधे (भी), उदकसे बहुत ऊपर निकलकर, उदकसे अलिप्त (हो) खड़े होते हैं । इसी तरह भगवान्ने बुद्ध-चक्षुसे लोकको देखा-अल्पमल, तीक्ष्णबुद्धि, सुस्वभाव, सुवोध्य प्राणियों को देखा जो परलोक तथा वुराईसे भय खाते विहर रहे थे। देखकर स हा प ति ब्रह्मासे गाथाद्वारा कहा- 'उनके लिये अमृतका द्वार बंद होगया, जो कानवाले होनेपर भी, श्रद्धाको छोड़ देते हैं। 'हे ब्रह्मा ! (वृथा) पीड़ाका ख्यालकर में मनुष्योंको निपुण, उत्तम, धर्मको नहीं कहता था।'
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