१७१।१४ ] उरुवेलामें चमत्कार [ ८९ उनसे भगवान्ने आनुपूर्वी कथा०१ कही।...भगवान्के धर्ममें विशारद हो. . .भगवान्से बोले- .भगवान्के हाथसे हमें प्रव्रज्या मिले...। वही उन आयुष्मानोंकी उपसम्पदा हुई। द्वितीय भाणवार (समाप्त) ॥२॥ ३-उरुवेला (१४) उरुवेलामें चमत्कार प्रदर्शन वहाँसे भगवान् क्रमशः विचरते हुए...उ रु वे ला पहुँचे। उस समय उ रु वे ला में तीन जटिल (- जटाधारी) -उ रु वे ल-काश्य प, न दी-का श्यप और गया-का श्य प-वास करते थे। उनमें उरुवे ल-का श्य प जटिल पांच सौ जटिलोंका नायक-विनायक-अग्र=प्रमुख-प्रामुख्य था । नदी-काश्य प जटिल तीन सौ जटिलोंका नायक० । ग या-का श्य प जटिल दो सौ जटिलोंका नायक। तव भगवान्ने उरुवेल-काश्यप जटिलके आश्रमपर पहुँच, उरुवेल-काश्यप जटिलसे कहा- "हे काश्यप ! यदि तुझे भारी न हो , तो मैं एकरात (तेरी) अग्निशालामें वास करूँ।" "महाश्रमण ! मुझे भारी नहीं है (लेकिन), यहाँ एक बळाही चंड, दिव्य-शक्तिधारी, आशी- विष घोर-विष नागराज है । वह (कहीं) तुम्हें हानि न पहुँचावे।" दूसरी वार भी भगवान्ने उरुवेल-काश्यप जटिलसे कहा- तीसरी बार भी भगवान्ने उरुवेल-काश्यप जटिलसे कहा-"...." "काश्यप ! नाग मुझे हानि न पहुँचावेगा, तू मुझे अग्निशालाकी स्वीकृति दे दे।" "महाश्रमण! सुखसे विहार करो।" १-प्रथम प्रा ति हा र्य-तब भगवान् अग्निशालामें प्रविष्ट हो तृण विछा, आसन बाँध, शरीरको सीधा रख, स्मृतिको थिर कर बैठ गये। भगवान्को भीतर आया देख, नाग क्रुद्ध हो धुआँ देने लगा। भगवान्के (मनमें) हुआ-"क्यों न मैं इस नागके छाल, चर्म, मांस, नस, हड्डी, मज्जाको विना हानि पहुँचाये, (अपने) तेजसे (इसके) तेजको खींच लूँ।" फिर भगवान् भी वैसेही योगवलसे धुंआं देने लगे। तव वह नाग कोपको सहन न कर प्रज्वलित हो उठा। भगवान् भी तेज-महाभूत (=तेजो धातु) में समाधिस्थ हो प्रज्वलित हो उठे। उन दोनोंके ज्योतिरूप होनेसे, वह अग्निशाला जलती हुई प्रज्व- लित-सी जान पळने लगी। तब वह जटिल अग्निशालाको चारों ओरसे घेरे, यों कहने लगे-"हाय ! परम-सुन्दर महाश्रमण नागद्वारा मारा जा रहा है।" भगवान्ने उस रातके बीत जानेपर, उस नागके छाल, चर्म, मांस, नस, हड्डी, मज्जाको विना हानि पहुँचाये, (अपने) तेजसे (उसका) तेज खींचकर, पात्रमें रख (उसे) उ रु वे ल का श्य प जटिलको दिखाया- "हे काश्यप ! यह तेरा नाग है, (अपने) तेजसे (मैंने ) इसका तेज खींच लिया है ।" तव उरुवेल-काश्यप जटिलके (मनमें) हुआ-महादिव्यशक्तिवाला=महा-आनुभाव-वाला महाश्रमण है; जिसने कि दिव्यशक्ति-सम्पन्न आशी-विष घोर-विष चण्ड नागराजके तेजको (अपने) तेजले खींच लिया। किन्तु मेरे जैसा अर्हत नहीं...। तव भगवान्के इस चमत्कार (=ऋद्धि-प्रातिहार्य) से उ रु वे ल का श्य प ज टि ल ने प्रसन्न हो भगवान्से यह कहा--"महाश्रमण ! यहीं विहार करो, मैं नित्य भोजनसे तुम्हारी (सेवा करूँगा)।" २-हि ती य प्रा ति हा र्य-तब भगवान् जटाधारी उरुवेल-काश्यपके आश्रमके पास एक वन-खण्डमें विहार करते थे। एक प्रकाशमान रात्रिको अतिप्रकाशमय चारों म हा रा ज (देवता), १ देखो पृष्ठ ८४ । २ कप्पासिय वन-संड। १२
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