९८ ] ३-महावन्ग [ ११११८ एकान्तवासके योग्य है । क्यों न मैं वेणुवन-उद्यान बुद्ध सहित भिक्षु-संघको प्रदान करूं।" तव मगध-राज....ने भगवान्से निवेदन किया--"भन्ते ! मैं वे णु व न उ द्या न बुद्ध-सहित भिक्षु-संघको देता हूँ।" भगवान् आराम स्वीकार किये; और फिर मगध-राजको धर्म-संबंधी कथाओं द्वारा,.... समुत्तेजितकर....आसनसे उटकर चलेगये। भगवान्ने इसीके सम्बन्धमें धर्म-संबंधी कथा कह, भिक्षुओंको सम्बोधित किया-"भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ आरामके ग्रहण करनेकी।" 2 ( १८ ) सारिपुत्र और मोद्गल्यायनको प्रव्रज्या उस समय सं ज य (नामक) परिव्राजक रा ज ग ह में ढाई सौ परिव्राजकोंकी वळी जमातके साथ निवास करता था। सा रि पुत्र, और मौद्ग ल्या य न, संजय परिव्राजकके चेले थे। उन्होंने (आपसमें) प्रतिज्ञाकी थी-जो पहिले अमृतको प्राप्त करे, वह दूसरेसे कहे। उस समय आयुष्मान् अश्व जित् पूर्वाह्न समय सु-आच्छादित हो, पात्र और चीवर ले, अति सुन्दर= प्रतिक्रांत आलोकन=विलोकनके साथ, संकोचन और प्रसारणके साथ, नीची नजर रखते, संयमी ढंगसे, राजगृहमें भिक्षाके लिये प्रविष्ट हुए। सारिपुत्र परिव्राजकने आयुष्मान् अश्वजित्को अतिसुन्दर...आ- लोकन-विलोकनके साथ....नीची नजर रखते संयमी ढंगसे राजगृहमें भिक्षाके लिये घूमते देखा। देख- कर उनको हुआ—“लोकमें अर्हत् या अर्हत्के मार्गपर जो आरूढ़ हैं, यह भिक्षु उनमेंसे एक है। क्यों न में इस भिक्षुके पास जा पूछ्-आवुस ! तुम किसको (गुरु) करके साधु हुए हो; कौन तुम्हारा गुरु है ?; तुम किसके धर्मको मानते हो?" फिर सारिपुत्र परिव्राजक (के चित्तमें) हुआ- यह समय इस भिक्षुसे (प्रश्न) पूछनेका नहीं है, यह घर घर भिक्षाके लिये घूम रहा है। क्यों न मैं इस भिक्षुके पीछे होलूं।" आयुष्मान् अश्वजित् राज-गृहमें भिक्षाके लिये घूमकर, भिक्षाको ले, चल दिये। तब सारिपुत्र परिव्राजक जहाँ आयुष्मान् अश्वजित् थे, वहाँ गया; जाकर आयुष्मान् अश्वजित्के साथ यथायोग्य कुशल प्रश्न पूछ एक ओर खळा होगया। खळे होकर सारिपुत्र परिव्राजकने आयुष्मान् अश्वजित्से कहा- "आवुस ! तेरी इन्द्रियाँ प्रसन्न हैं, तेरी कान्ति शुद्ध तथा उज्वल हैं। आवुस ! तुम किस- को (गुरु) करके साधु हुए हो, तुम्हारा गुरु कौन है ? तुम किसका धर्म मानते हो?" "आवुस ! शा क्य-कुलसे प्रबजित शा क्य - पुत्र (जो) महाश्रमण हैं, उन्हीं भगवान्को (गुरु) करके मैं साधु हुआ। वही भगवान् मेरे गुरु हैं। उन्हीं भगवान्का धर्म मैं मानता हूँ।" "आयुष्मान्के गुरुका क्या मत है किस (सिद्धांत) को वह मानते हैं ?" "आवुस ! मैं नया हूँ, इस धर्ममें अभी नया ही साधु हुआ हूँ; विस्तारसे मैं तुम्हें नहीं बतला सकता, इसलिए संक्षेपमें तुमसे धर्म कहता हूँ।" "तव सा रि पुत्र परिव्राजकने आयुप्मान् श्व जित् से कहा-"अच्छा आवुस थोड़ा बहुत जो हो कहो, सारहीको मुझे वतलाओ । सारही से मुझे प्रयोजन है, क्या करोगे बहुतसा विस्तार कहकर।" तव आयुप्मान् अश्वजित्ने सारिपत्र परिव्राजकसे यह धर्म - पर्याय (=उपदेश) कहा- "हेतु (कारण) से उत्पन्न होनेवाली जितनी वस्तुयें हैं, उनका हेतु है, (यह) तथागत बतलाते हैं। उनका जो निरोध है (उसको भी बतलाते हैं), यही महाश्रमणका वाद है।" तब सारिपुत्र परियाजकको इस धर्म-पर्यायके सुगनेसे-"जो कुछ उत्पन्न होनेवाला है, वह सब
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