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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१५९

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! . ११४ । ३-महावग्ग [ १३३ (४) "और फिर भिक्षुओ! अन्य ती थि क पूर्व, शील, चित्त और प्रजाके संबंध पाठ करने तथा पूछनेमें तीव्र इच्छावाला नहीं होता। ऐसे भी भिक्षुओ ! ० । (५) "और फिर भिक्षुओ! अन्य-तीथिक-पूर्व जिस संप्रदायसे (पहिले) संलग्न होता है उसके शास्ता (=उपदेष्टा), उसके वा द, उसकी स्वीकृति, उसकी भत्रि, उसके दानके संबंध अप्रशंसा करनेपर कुपित होता है, असंतुष्ट होता है, नाराज होता है; और बुद्ध या वर्म या घकी अप्रशंसा करते वक्त संतुष्ट होता है, प्रसन्न होता है, हृष्ट होता है । अथवा जिस संप्रदायसे (पहिले) संलग्न था उसके शास्ता उसके बाद, उसकी स्वीकृति, उसकी रुचि. उसके दानके संबंधमें अप्रशंसा करनेपर संतुष्ट होता है, प्रसन्न होता है, हृष्ट होता है। भिक्षुओ ! अन्य ती थि क पूर्व के असाध्य होनेमें यह मंघमे संबद्ध (वात) है। इस प्रकार भिक्षुओ! अन्य ती थि क पूर्व अनाराधक होता है। "भिक्षुओ! इस प्रकारके अनारावक (= असाध्य) अन्य ती थि क पूर्व के आनेपर उपसंपदा न करनी चाहिये । 60 (ग) ठीक होने लायक "कैसे भिक्षुओ ! अन्य ती थि क पूर्व आराधक (=साध्य) होता है ?- (१) “भिक्षुओ! जो अन्य ती थि क पूर्व अतिकालमें ग्राममें प्रवेश नहीं करता, न बहुत दिन विताकर निकलता है, (वह पहिले-दूसरे-साधु-संप्रदायमें रहा) आ रा ध क होता है। (२) "और फिर भिक्षुओ ! वेश्याकी-आँख-न-पळेवाला, विधवाकी-आँख-न-पळेवाला, वळी-उम्की-कुमारिकाकी-आँख-न-पळेवाला, नपुंसककी-आँख-न-पळेवाला, भिक्षुणीकी-आँच-न-पळे वाला अन्य ती थि क पूर्व आराधक होता है । (३) “और फिर भिक्षुओ! (जो) अन्य ती थि क पूर्व, गुरु-भाइयोंके छोटे-बळे जो काम हैं, उनके करनेमें दक्ष, आलस-रहित होता है, उनके विपयमें उपाय और सोच करता है, करनेमें तथा ठीकसे विधान करनेमें समर्थ होता है, (वह) आ रा ध क होता है। (४) “और फिर भिक्षुओ! (जो) अन्य ती थि क पूर्व शील, चित्त और प्रज्ञाके संबंध पाठ करने तथा पूछनेमें तीव्र इच्छावाला होता है, (वह) आ रा ध क होता है। (५) "और फिर भिक्षुओ! (जो) अन्य ती थि क पूर्व जिस संप्रदायसे (पहिले) संलग्न था, उसके शास्ता, उसके वाद, उसकी स्वीकृति, उसकी रुचि उसके दानके संबंधमें अप्रशंसा करनेपर संतुष्ट होता है, प्रसन्न होता है, हृष्ट होता है, और बुद्ध या धर्म या सं घ की अप्रशंसा करते वक्त कुपित होता है, असंतुष्ट होता है, नाराज होता है । अथवा जिस संप्रदायसे (पहिले) संलग्न था उसके शास्ता०की प्रशंसा करने पर कुपित होता है, और बुद्ध, धर्म, या सं घ की प्रशंसा करनेपर संतुष्ट होता है, भिक्षुओ! (उस) अन्य ती थि क पूर्व के साध्य होनेमें यह संघसे संबद्ध (वात) है। इस प्रकार भिक्षुओ! (वह) अन्य ती थि क पूर्व आराधक होता है। "भिक्षुओ! इस प्रकारके आराधक अन्य ती थि क पूर्व के आनेपर उसे उपसंपदा देनी चाहिये। 61 (३) बाणप्रस्थियों के लिये विशेष ख्याल "यदि भिक्षुओ ! अन्यतीथिकपूर्व नंगा आवे, तो उपाध्यायका चीवर उसे ओढ़ाना चाहिये। यदि बिना कटे केशोंवाला आए, तो मुंडन-कर्मके लिये संघसे पूछना चाहिये । भिक्षुओ ! जो वह अग्नि- होत्री, जटाधारी (=जटिलक वाणप्रस्थी) हों, तो आतेही उनकी उपसंपदा करनी चाहिये ; उन्हें परिवास न देना चाहिये। सो क्यों? भिक्षुओ ! वह कर्मवादी (=कर्मके फलको माननेवाले), और क्रिया-वादी होते हैं। 62 "भिक्षुओ! यदि शा क्य-जा ति का अन्य ती थि क पूर्व आवे तो आते ही उसकी उपसंपदा 0