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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१६०

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१९३।४ ] प्रव्रज्याके लिये अयोग्य व्यक्ति [ ११५ करनी चाहिये, उसे परिवास न देना चाहिये । भिक्षुओ ! यह मैं (अपने) जातिवालोंको परंपरा तकके लिये उपहार देता हूँ।” 65 सप्तम भाणवार समाप्त ॥७॥ (४) प्रव्रज्या के लिये अयोग्य व्यक्ति १-उस समय म ग ध में, कुष्ठ, फोळा, चर्म-रोग, सूजन और मृगी-यह पाँच वीमारियाँ उत्पन्न हुई थीं। पांचों बीमारियों से पीळित हो लोग जी व क कौ मा र भृत्य के पास आकर ऐसा कहते थे-"अच्छा हो आचार्य ! हमारी चिकित्सा करो।" "आर्यो ! मुझे बहुत काम हैं; बहुत करणीय है। मगधराज सेनिय वि म्बि सा र की सेवामें जाना पळता है। रनिवास और बुद्ध प्र मु ख' भिक्षु-संघकी भी (सेवा करनी होती है)। मैं (आप लोगोंकी) चिकित्सा करनेमें असमर्थ हूँ।" तव उन मनुप्योंके मनमें यह हुआ--यह शा क्य पु त्री य श्रम ण (=बौद्ध भिक्षु) आराम- पसन्द (=सुखशील) और सुख स मा चा र (=-आरामवाले काम करनेवाले ) हैं । ये अच्छा भोजन करके (अच्छे) निवासों और शय्याओंमें सोते हैं। क्यों न हम भी शाक्यपुत्रीय श्रमणोंमें (जाकर) भिक्षु बन जायँ । तव भिक्षु भी सेवा करेंगे और जी व क कौ मा र भ त्य भी चिकित्सा करेगा। तव उन मनुष्योंने भिक्षुओंके पास जाकर प्रव्रज्या (=संन्यास) माँगी। भिक्षुओंने उन्हें प्रव्रज्या दी, उपसंपदा दी । तव भिक्षु भी उनकी सेवा करते थे और जी व क कौ मा र भृत्य भी उनकी चिकित्सा करता था। उस समय वहुतसे रोगी भिक्षुओंकी सेवा करते हुए वहुत याचना, माँगना किया करते थे- 'रोगीके लिये पथ्य दीजिये, रोगीके सेवक के लिये भोजन दीजिये, रोगीके लिये ओषध दीजिये।' जी व क को मा र भृत्य भी बहुतसे रोगी भिक्षुओंकी चिकित्सामें लगे रहनेसे किसी राज-कार्यको छोळ बैठा। कोई पुरुष पाँच रोगोंसे पीळित हो जीवक कौमारभृत्यके पास आकर ऐसा वोला-“अच्छा हो आचार्य ! मेरी चिकित्सा करे। "आर्य ! मेरे बहुतसे काम हैं, बहुत करणीय हैं। मगधराज सेनिय वि म्बि सा र की सेवामें जाना पळता है। रनिवास और वर प्रभु ख भिक्ष-संवकी भी (सेवा करनी होती है)। मैं (आपकी) मैदा करनेमें असमर्थ हूँ।" "आचार्य ! मेरा मारा धन तुम्हारा होगा और मैं तुम्हारा दास हूँगा। अच्छा हो आचार्य मेरी चिकित्मा करें।" "आर्य मेरे बहुतसे काम हैं ।" नव उस मनुप्यके (मनमें) ऐसा हुआ--यह था क्य पुत्री य श्र म ण आराम-पसन्द (= मुग्त्र-शील) और मुख-म मा चार (=आगमवाले काम करनेवाले) हैं । ये अच्छा भोजन करके (अच्छे) निवानों और टाय्याओंमें सोते हैं। क्यों न मैं भी शाक्यपुत्रीय श्रमणोंमें (जाकर) भिक्षु बन जाऊँ। तब भिक्षु भी मेवा करेंगे और जीवक कौमारभृत्य भी चिकित्सा करेगा और नीरोग होनेपर मै भिक्षु-आश्रम छोळ चला जाऊँगा ।" नव उन मनुप्यने भिक्षुओंके पास जाकर प्रज्या (=मन्याम) माँगी। भिक्षुओंने उमे प्रव्रज्या दी. अनम्पदा दी। नव भिक्षु भी उसकी मेवा करते थे और जीवक कौमारभुत्य भी उसकी चिकित्मा 'जिसमे बुद्ध प्रमुख है।