पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३-महावग्ग [ १९३८ नीरोग होनेपर वह भिक्षुपन छोळ चला गया। जी व क कौमारभृत्यने भिक्षु-आश्रम छोळकर चले गये उस आदमीको देखा। देखकर उस पुरुपसे पूछा-"क्यों आर्य! तुम तो भिक्षु बने थे ?" "हाँ आचार्य !" "तो आर्य ! तुमने क्यों ऐसा किया ?" तब उस पुरुषने जीवक कौमारभृत्यसे सब बात बतला दी। (उसे सुनकर) जीवक कौमार- भृत्य हैरान होता, धिक्कारता और दुखी होता था--कैसे भदन्त (लोग) पाँच रोगोंसे पीळित (पुरुष को) प्रव्रज्या देते हैं ! तब जीवक कौमारभृत्य भगवान्के पास गया। जाकर भगवान्की बन्दनाकर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे जीवक कौमारभृत्यने भगवान्से यह कहा-"अच्छा हो भन्ते ! आर्य (=भिक्षु) लोग पाँच रोगोंसे पीळितको प्रव्रज्या न दें।" तब भगवान्ने जी व क कौमारभृत्यको धार्मिक कथा कह. . .समुत्तेजित संप्रहर्पित किया। तब जीवक कौमारभृत्य भगवान्की धार्मिक कथा द्वारा... ...समुत्तेजित.. हो आसनसे उठकर भगवान्को अभिवादनकर, प्रदक्षिणाकर चला गया। तब भगवान्ने इसी संबंध में इसी प्रकरणमें धार्मिक कथा कहकर भिक्षुओंको संबोधित किया-- "भिक्षुओ! (कुष्ठ आदि) पाँच रोगोंसे पीळितको नहीं प्रव्रज्या देनी चाहिये । जो प्रव्रज्या दे उसे दुवक ट का दोष हो।"64 २--उस समय मगधराज सेनिय वि म्बि सा र के सीमान्तमें विद्रोह हो गया था। तब मगधराज सेनिय विम्बिसारने (अपने) सेना-नायक महामात्योंको आज्ञा दी-“जाओ रे ! सीमान्तको ठीक करो।" "अच्छा देव!"-- -(कह) सेना-नायक महामात्योंने मगधराज सेनिय बिम्बिसारको उत्तर दिया। तव अच्छे अच्छे योधाओंके (मनमें) ऐसा हुआ–'हम युद्धको पसन्द करके, जाकर पाप करेंगे और वहुत अ-पुण्य पैदा करेंगे। क्या उपाय है जिससे कि हम पापसे बचें; अ-पुण्यको न पैदा करें?' तब उन योधाओंके (मनमें) ऐसा हुआ--'यह शा क्य पु त्री य श्र म ण धर्मचारी उत्तमात्रारी, ब्रह्मचारी, सत्यवादी, शीलवान् धर्मात्मा हैं। यदि हम शा क्य पु बी य श्रम णों के पास (जाकर) प्रबजित हो जायें तो हम पापसे बच जायेंगे, अ-पुण्यको पैदा न करेंगे।' तब उन योधाओंने भिक्षुओंके पास जाकर प्रव्रज्या माँगी, और भिक्षुओंने उन्हें प्रव्रज्या और उपसंपदा दी। सेना-नायक महामात्योंने उन राजसैनिकोंसे पूछा- "क्यों रे ! इस इस नामवाले योधा नहीं दिखाई देते?" "स्वामी ! इस इस नामवाले योधा भिक्षुओंके पास प्रव्रजित हो गये।" तब वह सेना-नायक महामात्य हैरान होते, धिक्कारते और दुखी होते थे--'कैसे शा क्य पुत्री य श्रम ण राजसैनिकोंको प्रव्रज्या देते हैं !' तब सेना-नायक महामात्योंने यह बात मगधराज सेनिय विम्बिसारसे कही। तव मगधराज सेनिय बिम्बिसारने व्या व हा रि क म हा मा त्यों (= न्यायाधीशों) से पूछा- "क्यों जी! जो राज-सैनिकको प्रव्रज्या दे उसको क्या होना चाहिये?" "देव ! उस (=उपाध्याय) का सिर काटना चाहिये, अनु शा स क (=उपदेश करने वाले) की जीभ निकालनी चाहिये, और (=संन्यास देनेवाले) ग ण की पसली तोळ देनी चाहिये।" तव मगधराज सेनिय वि म्बि सा र, जहाँ भगवान् थे वहाँ गया । जाकर भगवान्को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे मगधराज सेनिय विम्बिसारने भगवान्से यह कहा- "भन्ते ! (बुद्ध धर्मके प्रति) श्रद्धा-भक्ति न रखनेवाले राजा भी हैं। वह थोळी वातके लिये