पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१६९

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१२४ ] ३-महावग्ग [ १७३।१३ करनेवाले तमाशोंसे बाज आना; (८) माला, गंध और उबटनेके धारण, मंडन, विभूपणकी वातसे वाज आना। (९) ऊँची शय्या और महार्घ शय्यासे बाज़ आना; (१०) सोना-चाँदीको ग्रहण करनेसे वाज आना । भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, श्रामणेरोंको (इन) दस शिक्षा - प दों की जिन्हें श्रामणेर सीखें ।"IOD (१३) दंडनीय श्रामगोगेका दंड (क) दंड नी य--उस समय श्रामणेर भिक्षुओंके साथ गौरब और प्रतिष्ठा न रखते उल्टी वृत्तिके हो रहे थे। भिक्षु हैरान होते, धिक्कारते और दुखी होते थे--कैसे श्रामणेर भिक्षुओंके साथ गौरव और प्रतिष्ठा न रखते हुए उल्टी वृत्तिके हो रहे हैं ?' उन्होंने यह बात भगवान्से कही। (भग- वान्ने यह कहा)- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, पाँच बातोंसे युक्त श्रामणेरको दंड करनेकी--(१) भिक्षुओंक अ-लाभकी कोशिश करता है; (२) भिक्षुओंके अनर्थकी कोशिश करता है; (३) भिक्षुओंके वास न पानेकी कोशिश करता है; (४) भिक्षुओंकी निन्दा, शिकायत करता है; (५) भिक्षुओंमें परस्पर विगाळ कराता है। भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, (इन) पाँच बातोंसे युक्त श्रामणेरको दंड करनेकी।' "IOI (ख) दंड--तब भिक्षुओंके (मनमें) ऐसा हुआ—'क्या दंड करना चाहिये ?' उन्होंने भगवान्से यह बात कही। (भगवान्ने यह कहा) "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, आवरण (=घरके भीतर आनेमे रोकना) करनेको ।" 102 (ग) दंड में नि य म -(a) उस समय भिक्षु श्रामणेरोंके लिये सारे संघारामका आ व र ण करते थे जिससे श्रामणेर आरामके भीतर प्रवेश न पानेसे चले जाते, गृहस्थाश्रममें लौट जाते या तीथिकों- के मतमें चले जाते थे। उन्होंने भगवान्से यह बात कही। (भगवान्ने यह कहा)- "भिक्षुओ ! सारे संघारामका आवरण नहीं करना चाहिये । जो करे उसे दुक्क ट का दोप होता है। भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, जहाँ वह बसता हो या घूमता हो वहाँ आ व र ण करनेकी ।" 103 (b) उस समय भिक्षु श्रामणेरोंके मुखके आहारका आ व र ण (=रोक) करते थे। लोग खिचळी, पान, और संघ-भोजन तैयार करते वक्त श्रामणेरोंसे यह कहते थे--'आओ भन्ते! खिचळी पिओ, आओ भन्ते ! भात खाओ।' श्रामणेर ऐसा उत्तर देते थे—'आवुसो! वैसा नहीं कर सकते। भिक्षुओंने हमारा आवरण किया है। लोग हैरान होते, धिक्कारते और दुखी होते थे---'कैसे भदन्त लोग श्रामणेरोंके मुखके आहारका आवरण करेंगे !' लोगोंने भगवान्से यह बात कही। (भगवानने यह कहा) "भिक्षुओ! मुखके आहारका आवरण नहीं करना चाहिये। जो करे उसको दुक्कटका दोष होता है ।" 104 दंड करनेका वर्णन समाप्त । (c) उस समय प ड वर्गी य (=छ पुरुपोंवाला समुदाय) भिक्षु उपाध्यायोंसे बिना पूछे ही श्रामणेरोंका आवरण करते थे। उपाध्याय खोजते थे--हमारे श्रामणेर क्यों नहीं दिखलाई पळ रहे हैं ! (दूसरे) भिक्षुओंने यह कहा---' -'आवुसो! प ड वर्गी य भिक्षुओंने आवरण कर दिया है।' उन श्रामणेरोंके (उपाध्याय) हैरान होते, धिक्कारते और दुखी होते थे--'कमे पड्वर्गीय भिक्षु बिना हमने पूछे ही हमारे श्रामणेरोंका आवरण करेंगे!' (उन्होंने) भगवान्से यह बात कही । (भगवान्ने यह कहा)-- "भिक्षुओ! उपाध्यायोंसे बिना पूछे आ व र ण नहीं करना चाहिये। जो करे उसे दुक्कटका दोप हो।" IOS १ अपड्वर्गीयोंके वारेमें देखो पा ति भो क्ख पृष्ठ १४ टि० ।