पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१७१

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१२६ ] ३-महावग्ग [ १९३।१४ "आवुसो ! उपाध्याय क्या चीज़ है ?" तब भिक्षुओंने आयुष्मान् उपालिसे यह कहा- "आवुस उ पा लि इस प्रन जित (=साधु) की पूछताछ करो।" तब आयुष्मान् उ पा लि द्वारा पूछताछ करनेपर उस कुलीनतासे च्युत पुराने खान्दानके लळकेने सव बात कह दी। आयुष्मान् उपालिने वह बात भिक्षुओंसे कह दी। भिक्षुओंने वह बात भगवान्से कही। (भगवान्ने यह कहा) "भिक्षुओ! चोरीसे वस्त्र पहने उपसंपदा-रहित (पुरुष) को नहीं उपसंपदा देनी चाहिये । उप- संपदा प्राप्त कर लिये हो तो उसे निकाल देना चाहिये । भिक्षुओ ! तीथिकों (=अन्य पन्थके अनु- यायियों) के पास चले गये उपसंपदा-रहित (पुरुप) को उपसंपदा न देनी चाहिये। यदि उपसंपदा पा गया हो तो उसे निकाल देना चाहिये।" 109 ३--उस समय एक नाग (अपनी) नाग-योनिसे घृणा करता, दिक होता, जुगुप्सा करता था। तब उस नागके (मनमें) ऐसा हुआ--'किस उपायसे मैं नाग-योनिसे मुक्त होऊँ और जल्दी मनुष्यत्वको पाऊँ ?' तब उस नागके (मनमें) ऐसा हुआ—'यह शाक्यपुत्रीय श्रमण धर्मचारी,. . .ब्रह्मचारी, सत्य- वादी, शीलवान् और पुण्यात्मा हैं। यदि मैं शाक्यपुत्रीय श्रमणोंके पास प्रवज्या पा सकें, तो इस प्रकार नाग- योनिसे मुक्त हो सकता हूँ, और शीघ्र ही मनुष्यत्वको प्राप्त हो सकता हूँ।' तब उस नाग ने तरुण ब्राह्मण (=माणवक) का रूप धारणकर भिक्षुओंके पास जा प्रव्रज्या माँगी। भिक्षुओंने उसे प्रव्रज्या और उप- संपदा प्रदानकी। उस समय वह नाग एक भिक्षुके साथ सीमान्तके विहारमें निवास करता था। एक दिन वह भिक्षु रातके भिनसारको उठकर टहलने लगा। तब वह नाग उस भिक्षुके बाहर निकलनेपर बेफिक्र हो सोने लगा और सारा विहार सांपसे भर गया, तथा खिळकियोंसे फण निकल रहे थे। तब उस भिक्षुने विहार में प्रवेश करनेके लिये किवाळको खोलते वक्त देखा कि सारा विहार साँपसे भर गया है और खिळकियोंसे फण निकल रहे हैं। देखकर भयभीत हो चिल्ला उठा। (दूसरे) भिक्षु दौळ आ उस भिक्षुसे वोले—आवुस ! किसलिये तू चिल्ला उठा?' "आवुसो! यह सारा विहार साँपसे भरा है, और खिळकियोंसे फण निकल रहे हैं।" तव वह नाग उस शव्दके कारण सिमिटकर अपने आसनपर बैठ गया। भिक्षुओंने उससे यह कहा- "आवुस ! तू कौन है ?" "भन्ते ! मैं नाग हूँ।" "आवुस ! तूने क्यों ऐसा किया ?" तव उस नागने भिक्षुओंसे वह सब वात कह दी। भिक्षुओंने उस वातको भगवान्से कहा। तब भगवान्ने इसी संबंधमें इसी प्रकरणमें भिक्षु-संघको जमाकर उस नागसे यह कहा- "तुम इस धर्म वि न य के योग्य नहीं क्योंकि तुम नागहो। जाओ नाग ! वहीं अपने (लोकमें)। चतुर्दशी पूर्णमासी, और अप्टमी, और पक्षके उपोसथको उपवास करो। इस प्रकार तुम नागयोनिसे मुक्त हो जाओगे और जल्दी मनुष्यत्वको प्राप्त करोगे।" तव वह नाग-'मैं इस धर्मके योग्य नहीं हूँ-' (सोच) दुःखी (= दुर्मना) आँसू बहाते हुए चीत्कार कर चला गया। तव भगवान्ने भिक्षुओंको संबोधित किया- "भिक्षुओ! नागके स्वभावको प्रगट करनेके दो सयय हैं-(१) जब अपने स्वजातीय स्त्रीले मैथुन करता है; (२) और जब निधड़क हो निद्रा लेता है । भिक्षुओ! यह दो नागके स्वभावको प्रगट करनेके समय हैं। भिक्षुओ! तिर्यक् योनिवाले प्राणीको विना उपसंपदाके होनेपर उपसंपदा न देनी