पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१७६

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1 १९४२ ] वळोंको गोत्रके नामसे पुकारना [ १३१ २-उस समय भिक्षु लज्जाहीनोंका निश्रय लेकर वास करते थे, और वह भी जल्दी ही लज्जा- हीन बुरे भिक्ष् हो जाते थे। भगवान्से यह बात कही। (भगवान्ने यह कहा)- "भिक्षुओ! लज्जाहीनोंका निश्रय लेकर वास नहीं करना चाहिये। जो वास करे उसे दुक्कटका दोप हो।" 167 ३--तव भिक्षुओंके (मनमें) ऐसा हुआ—'भगवान्ने आज्ञा दी है कि लज्जाहीनोंको न निश्रय देना चाहिये न लज्जाहीनोंका निश्रय ले वास करना चाहिये; लेकिन लज्जाशील (=लज्जी), लज्जा- हीन (=अलज्जी) को कैसे हम जानेंगे ?' भगवान्से यह बात कही। (भगवान्ने यह कहा)- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ चार पाँच दिन तक प्रतीक्षा करनेकी जितने में कि भिक्षुके स्वभाव को जान जाय।" 168 ४-उस समय एक भिक्षु को स ल देशमें रास्तेमें जा रहा था। उस समय उस भिक्षुके (मनमें) ऐसा हुआ—'भगवान्ने आज्ञा दी है कि निश्रयके बिना नहीं रहना चाहिये और मैं निश्रय लेने योग्य होते हुए रास्तेमें हूँ। कैसे मुझे करना चाहिये ?' भगवान्से यह बात कही। (भगवान्ने यह कहा)- "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ, रास्तेमें जाते हुए भिक्षुको, निश्रय न पानेपर विना निश्रयहीके रहनेकी।" 169 ५-उस समय दो भिक्षु को स ल देशमें रास्तेमें जा रहे थे। वह एक वास-स्थानमें गये। वहाँ एक भिक्षु वीमार पळ गया। तब उस बीमार भिक्षुके (मनमें) ऐसा हुआ—'भगवान्ने आज्ञा दी है कि निश्रयके विना नहीं रहना चाहिये ; मैं निश्रय लेने योग्य होते हुए रोगी हूँ। कैसे मुझे करना चाहिये ?' भगवान्से यह बात कही।- “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, रोगी भिक्षुको निश्रय न पानेपर बिना निश्रयहीके रहनेकी।" 170 ६-तव उस बीमारके परिचारक भिक्षुके (मनमें) ऐसा हुआ—'भगवान्ने आज्ञा दी है कि निश्रयके विना नहीं रहना चाहिये और मैं निश्रय लेने योग्य हूँ और यह भिक्षु रोगी है, मुझे कैसा वरना चाहिये ?' भगवान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ बीमारके परिचारक भिक्षुको इच्छा रखते भी निश्रय न पाने पर बिना निश्रयके रहनेकी ।" 17I ७-उस समय एक भिक्षु जंगलमें रहता था। उस निवास-स्थानपर उसे अच्छा था। तब उस भिक्षुके (मनमें) ऐसा हुआ—'भगवान्ने आज्ञा दी है कि निश्रयके विना नहीं रहना चाहिये, और मैं निश्रय लेने योग्य होते हुये जंगलमें हूँ; तथा मुझे इस वास-स्थानपर अच्छा है। मुझे कसा करना चाहिये!' भगवान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ जंगलमें रहनेवाले भिक्षुको निवास अनुकूल मालूम होनेपर, निधयके न मिलनेपर विना निश्रयके ही रहनेकी ; (यह सोचकर) जव अनुकूल निश्रयदायक आयेगा तो उसका निश्रय लेकर वास करूँगा।" 172 (२) वळों को गोत्रके नामसे पुकारना उस समय आयुप्मान् म हा का श्य प के पास एक उपसंपदा चाहनेवाला था। तव आयुप्मान् महावास्यपने आयुप्मान् आनन्दके पास (यह कहकर) दूत भेजा-'आनन्द ! आओ और इस पुरुषको लिये अन धा व ण' करो।' 'उपसंपदा देने (भिक्ष दनाने ) के समय उपसंपदा देनेकी स्वीकृति तथा उपाध्याय और लाचार नाम संघके सामने उंचे स्वरसे लिये जाते थे। इसीको अनुधावण कहते हैं ।