सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१९४८ ] श्रामणेर शिप्योंकी संख्या [ १३५ चाहिये । हाँ (यह) अतिरेक लाभ (भी तेरे लिये विहित हैं)-- क्षी म (अलसीकी छालका वस्त्र), कपासका (वस्त्र), कौशेय (=रेशमी वस्त्र), कम्बल (=ऊनी वस्त्र), सनका (वस्त्र), भांगकी (छालका वस्त्र)। (३) वृक्षके नीचे निवासके निश्रयसे यह प्रव्रज्या है । इसके (पालनमें) जिन्दगी भर उद्योग करना चाहिये। हाँ (यह) अतिरेक लाभ (भी तेरे लिये विहित हैं)---विहार, आढ्ययोग, प्रासाद, हर्म्य, गुहा । (४) गोमूत्रकी ओषधिके निश्रयसे यह प्रव्रज्या है। इसके (पालनमें) जिन्दगी भर उद्योग करना चाहिये । हाँ (यह) अतिरेक लाभ (भी तेरे लिये विहित हैं)--घी, मक्खन, तेल, मधु, खांळ।" 185 चार निश्रय समाप्त (८) श्रामणेर शिष्योंको संख्या उस समय (कुछ) भिक्षु एक भिक्षुको उपसंपदा दे, अकेले ही छोळ चले गये। पीछे अकेले ही चलते वक्त रास्तेमें उसे अपनी पहलेकी स्त्री मिली। उसने पूछा- "क्या इस वक्त प्रबजित हो गये हो?" "हाँ प्रवृजित हो गया हूँ।" "प्रजितोंके लिये स्त्री-समागम बहुत दुर्लभ है । आओ ! मैथुन-सेवन करो।" वह उसके साथ मैथुन कर, देरसे गया। भिक्षुओंने पूछा-- "आवुस ! क्यों तूने इतनी देर लगाई ?" तब उसने भिक्षुओंसे वह सब वात कह दी। भिक्षुओंने भगवान्से वह सब बात कही । (भग- वान्ने यह कहा)- “भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, उपसंपदा करके एक दूसरे (भिक्षको साथी) देनेकी और चार अकरणीयोंके बतलानेकी- "(१) उपसम्पन्न भिक्षुको अन्ततः पशुसे भी मैथुन नहीं करना चाहिये । जो भिक्षु मैथुन करे वह अश्रमण होता है, अशाक्य-पुत्रीय होता है। जैसे शिर-कटा-पुरुप उस शरीरसे जीनेमें असमर्थ होता है ऐसे ही भिक्ष मैथुन करके अश्रमण होता है, अशाक्यपुत्रीय होता है । यह तेरे लिये जीवन भर अकरणीय है। "(२) उपसम्पदा प्राप्त भिक्षुको चोरी समझे जाने वाली (किसी वस्तुको) चाहे वह तृणकी गलावा ही वयों न हो न लेना चाहिये । जो भिक्षु पाद ' या पाद के मूल्य या पादसे अधिककी चोरी समझी जानेवाली (चीज़ ) को ग्रहण करे वह अभ्रमण, अगावय-पुत्रीय होता है। जैसे टेंपसे छूटा पीला पत्ता फिर हरा होनेके अयोग्य है, ऐसेही भिक्षु पाद या पाद के मूल्यके या पादमे अधिककी चोरी समझी जानेवाची (चीज़ ) को ग्रहण करे वह अश्रमण, अशाक्यपुत्रीय होता है। यह तेरे लिये जीवन भर अकरणीय है। "(३) उपसम्पदा प्राप्त भिक्षुको जान बूझकर प्राण न मारना चाहिये चाहे वह चींटा मांटा ही क्यों न हो। जो भिक्ष जान बूझकर मनुप्यके प्राणको मारता है या अन्नतः गर्भपात भी कराता है वह अमण, अगाक्यपुत्रीय होता है। जैने कोई मोटी शिला दो टक हो जानेपर फिर जोतने लायक नहीं मती नही भिक्षु जान बजकर मनुष्यको प्राणने मारनेने अभ्रमण अगाश्यपुत्रीय होता है। यह तेरे लिये जीवन भर अकरणीय है । "(४) उपसम्पदा प्राप्त निधयो (अपने) दिव्य शक्ति (उनमनुष्यधर्म) को न कह्न । अतः सन्यागारमें मैं रमण करता है, तना भर भी (नहीं वहना चाहिये) । डो दुरी नीयत- पांच मापक (मामा)= पापा ममतोमर भी।