पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१८३

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१३६ ] ३-महावग्ग [ १११ वाला लोभके वशमें पळा भिक्षु अविद्यमान, असत्य-दिव्य-शक्ति, ध्यान, विमोक्ष, समाधि, समापत्ति, मार्ग या फल--को (अपने में) बतलाता है वह अश्रमण अशाक्यपुत्रीय होता है। जैसे शिर कटा ताळ फिर बढ़नेके योग्य नहीं होता, ऐगे ही बुरी नीयतवाला लोपके वशमें पळा भिक्षु अविद्यमान, अनन्य- दिव्य-शक्ति (अपनेमें) वतलाकर अथमण अशावयपुत्रीय होता है। यह तेरे लिये जीवन भर अकर- णीय है।" 184 चार अकरणीय समाप्त - (९) निश्रयकी अवधि उस समय एक भिक्षु (दोपको करके) दोपको न देखनेमे उ क्षिप्त होनेपर धर्म छोळकर चला गया। उसने फिर आकर भिक्षुओंसे उपसंपदा माँगी। भगवान्मे यह बात कही।- "भिक्षुओ ! यदि कोई भिक्षु दोप (=आपत्ति) के न देखनेसे उत्क्षिप्त हो निकल जाता है और वह फिर आकर उपसंपदा माँगता है तो उससे ऐसा पूछना चाहिये—'क्या तुम उस दोपको देखते हो?'- यदि वह कहे-'मैं देखता हूँ तो उसे प्रव्रज्या देनी चाहिये । यदि कहे 'नहीं देखता हूँ तो प्रव्रज्या नहीं देनी चाहिये । प्रव्रज्या देकर पूछना चाहिये-'क्या तुम उस आपत्तिको देखते हो?' यदि कहे 'मैं देखता हूँ तो उपसंपदा देनी चाहिये । यदि कहे 'नहीं देखता हूँ तो उपसंपदा नहीं देनी चाहिये।' उपसंपदा देकर पूछना चाहिये--'क्या तुम उस आपत्तिको देखते हो ?' यदि कहे 'मैं देखता हूँ तो उसका ओ सा र ण' करना चाहिये; यदि कहे 'नहीं देखता हूँ तो उसका ओ सा र ण नहीं करना चाहिये । ओ सा र ण करके पूछना चाहिये-'क्या तुम उस आपत्तिको देखते हो?' यदि कहे कि 'देखता हूँ'--तो अच्छा है । यदि कहे 'नहीं देखता' तो एकमत होनेपर फिर उ त्क्षि प्त करना चाहिये। यदि एकमत न मिलता हो तो साथके भोजन और निवासमें दोष नहीं। यदि भिक्षुओ ! आपत्तिके न प्रतिकारसे भिक्षु उत्क्षिप्त होनेपर चला जाये और वह फिर आकर भिक्षुओंसे उपसंपदा माँगे तो उससे ऐसा पूछना चाहिये-- 'क्या उस दोषका तुम प्रतिकार करोगे?' यदि कहे 'प्रतिकार करूँगा' तो प्रव्रज्या देनी चाहिये, यदि कहे 'प्रतिकार नहीं करूँगा' तो प्रव्रज्या नहीं देनी चाहिये। प्रव्रज्या देकर पूछना चाहिये 'क्या तुम उस दोपका प्रतिकार करोगे ?' यदि कहे 'प्रतिकार करूँगा' तो उपसंपदा देनी चाहिये; यदि कहे 'प्रतिकार नहीं करूँगा' तो उपसम्पदा नहीं देनी चाहिये । उपसंपदा देकर पूछना चाहिये 'क्या तुम उस आपत्तिका प्रतिकार करोगे?' यदि कहे 'प्रतिकार करूँगा' तो ओ सा र ण करना चाहिये। यदि कहे 'प्रतिकार नहीं करूँगा' तो ओ सारण नहीं करना चाहिये। ओ सा र ण करके पूछना चाहिये 'क्या उस दोपका प्रतिकार करते हो?' यदि वह प्रतिकार करे तो ठीक; यदि प्रतिकार न करे तो एकमत होनेपर फिर उत्क्षिप्त करना चाहिये। यदि एकमत न प्राप्त हो तो साथके भोजन और निवासमें दोप नहीं। 185 “यदि भिक्षुओ! कोई भिक्षु बुरी दृष्टिके न त्यागनेसे उत्क्षिप्त होकर चला गया हो और वह फिर आकर भिक्षुओंसे उपसंपदा माँगे तो उससे पूछना चाहिये--'क्या तुम उस बुरी धारणाको छोळोगे ?' यदि कहे कि-छोलूंगा-तो प्रव्रज्या देनी चाहिये; यदि कहेकि-नहीं छोळंगा-तो प्रव्रज्या नहीं देनी चाहिये। प्रव्रज्या देकर पूछना चाहिये--क्या तुम उस बरी धारणाको छोळोगे ? -यदि कहे कि- छोडूंगा--तो उपसम्पदा देनी चाहिये; यदि कहेकि--नहीं छोडूंगा-तो उपसम्पदा नहीं देनी चाहिये। उपसंपदा देकर पूछना चाहिये--क्या तुम बुरी धारणाको छोळोगे-यदि कहे-छोळंगा-तो ? १ अपराध होनेपर संघकी ओरसे उत्क्षिप्त करनेका दंड होता है । उस दंडको हटा लेना ओ सा र ण कहा जाता है।