पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१८७

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1 १४० ] ३-महावग्ग [ २०२१ "भिक्षुओ ! पक्षमें तीन तीन बार प्रातिमोक्ष-आवृत्ति नहीं करनी चाहिये । जो करे उसे दुक्कट- का दोष हो। भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ पक्षमें एक बार चतुर्दशी या पंचदगीको प्रातिमोक्ष-आवृत्ति करने की।"6 (५) प्रातिमोक्ष की श्रावृत्तिमें समग्र होनेका नियम १--उस समय पड्वर्गीय भिक्षु परिपके अनुसार अपनी-अपनी परिपके लिये प्रातिमोक्ष- आवृत्ति करते थे। भगवान्से यह बात कही-- "भिक्षुओ! परिपद्के अनुसार अपनी-अपनी परिपद्कं लिये प्रातिमोक्ष-आवृत्ति नहीं करनी चाहिये । जो पाठ करे उसे दुक्कटका दोप हो । भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, म म ग्र ( सभी एकत्रित भिक्षु-मंडली)को उ पो स थ क र्म की।" 7 तव भिक्षुओंके मनमें यह हुआ--"भगवान्ने समग्र (सभी एकत्रित भिक्षु-मंडली) के लिये उ पो स थ क र्म का विधान किया है, यह समग्रता क्या चीज़ है ? क्या एक निवास-स्थानमें रहने वाले सभी, या सारी पृथ्वी (के भिक्षुओंको समग्र कहेंगे)?" भगवान्मे यह बात कही।- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, एक निवास-स्थानमें जितने (भिक्षु) हैं उन्हींको समग्र माननेकी।"8 २--उस समय आयुष्मान् म हा क प्पि न रा ज गृह के म हे कुच्छि ( मद्रकुक्षि) मृग दा व- में रहते थे। तव आयुष्मान् महाकप्पिनको एकान्तमें विचारमग्न होते समय ऐसा चित्तमें विचार उत्पन्न हुआ—'क्या उ पो स थ में मैं जाऊँ या नहीं जाऊँ ? क्या सं घ क र्म में मैं जाऊँ या न जाऊँ ? मैं तो अत्यन्त ही विशुद्ध हूँ।' तब भगवान्ने आयुष्मान् महाकप्पिनके मनके विचारको अपने मनसे जानकर,जैसे बलवान् पुरुष समेटी बाँहको (विना प्रयास) पसारे या पसारी बाँहको (विना प्रयास) समेटे, वैसे ही गृध्रकूट पर्वतपर अन्तर्ध्यान हो म द्र कु क्षि मृग दा व में आयुष्मान् महाकप्पिनके सामने प्रकट हुए। भगवान् विछे आसनपर वैठे। आयुष्मान् महाकप्पिन भी भगवान्को अभिवादनकर एक ओर बैठे। एक ओर बैठे आयुष्मान् महाकप्पिनसे भगवान्ने यह कहा- "क्या कप्पिन ! एकान्तमें विचार मग्न होते समय तुम्हें ऐसा चित्तमें विचार उत्पन्न हुआ- 'क्या उ पो स थ में मैं जाऊँ या नहीं जाऊँ ? क्या संघकर्ममें मैं जाऊँ या नहीं जाऊँ ? मैं तो अत्यन्त ही विशुद्ध हूँ' ?" "हाँ भन्ते !" "यदि तुम (जैसे) ब्राह्मण उपोसथका सत्कार गुरुकार नहीं करेंगे, मान-पूजा नहीं करेंगे तो कौन उपोसथका सत्कारः गुरुकार, मान-पूजा करेगा ? ब्राह्मण ! उपोसथमें तुम्हें जाना चाहिये, न जाना नहीं चाहिये; संघ-कर्ममें तुम्हें जाना चाहिये, न-जाना नहीं चाहिये।" "अच्छा भन्ते !" (कह) आयुष्मान् महाकप्पिनने भगवान्को उत्तर दिया। तव भगवान् आयुष्मान् महाकप्पिनको धार्मिक कथा कह. . .समुत्तेजितकर ... जैसे बलवान् पुरुप समेटी वाँहको पसारे या पसारी वाहको समेटे ऐसे ही म द्र कुक्षि मृग दा व में आयुष्मान् महा- कप्पिनके सम्मुख अन्तर्धान हो गृध्रकूट पर्वत पर प्रकट हुए। २-उपोसथ केन्द्रको सीमा और उपोसथोंकी संख्या (१) सीमा बाँधना १--तब भिक्षुओंके मनमें यह हुआ-'भगवान्ने एक निवास-स्थानमें जितने (भिक्षु) हों उतनों को समग्र कहा, किन्तु एक निवास- स्थान कितनेका होता है ?' भगवान्से यह बात कही-