. २०२।२ ] उपोसथ केन्द्र [ १४१ "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ सीमाके निर्णय करनेकी।" "भिक्षुओ ! इस प्रकार सीमाका निर्णय करना चाहिये; पहले चिह्न-पर्वत-चिह्न, पापाण- चिह्न, वन-चिह्न, वृक्ष-चिह्न, मार्ग-चिह्न, वल्मीक (=दीमककी घरकी मिट्टी)-चिह्न, नदी-चिह्न, उदक-चिह्न-बतलाना चाहिये। चिह्नोंको बतलाकर चतुर समर्थ भिक्षु संघको सूचित करे-- क. ज प्ति--"भन्ते ! संघ मेरी (वात) सुने। चारों ओरके जितने चिह्न हैं वे वतला दिये गये। यदि संघ उचित समझे तो इन चिह्नोंवाली सोमाको एक उपोसथवाला एक निवास स्थान स्वीकार करे-यह मूत्रना है। द. अनु श्रा व ण--(१) "भन्ते ! संघ मेरी (बात) सुने। जितने चारों ओरके चिह्न बतलाये गये हैं, संघ इन चिह्नोंवाली सीमाको एक उपोसथवाला एक निवास-स्थान स्वीकार करता है। जिस आयुष्मान्को इन चिह्नोंवाली मीमाका एक उपोसथवाला एक निवास-स्थान मानना पसंद है वह चुप रहे ; जिसको पसंद नही है वह बोले ।... । ग. धा र णा--"संघको यह चिह्न एक उपोसथवाले एक निवास स्थानकी सीमाके लिये बीकार है, इसलिये चुप है--ऐसा इये मैं समझता हूँ।" २--उस समय प ड व गी च भिक्षु (यह सोचकर कि) भगवान्ने सीमा निर्णय करनेकी अनुमति दी है, बड़ी भारी चार योजन, पाँच योजन, छ: योजनकी नीमानिश्चित करते थे । दूर होनेसे भिक्षु लोग उ पो स थ के लिये प्रातिमोक्षका पाठ करते वक्त भी आते थे। पाठ हो चुकनेपर भी आते थे। बीच में भी रह जाते थे। भगवानसे यह बात कही।-- "भिक्षुओ ! चार योजन, पाँच योजन, या छः योजनकी बहुत भारी नीमा नही निश्चित करनी चाहिये । जो निश्चित करे उने दुवकटका दोप हो। भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ अधिको अधिक तीन योजनवी गीमा निश्चित करनेवी।" 10 --उस समय पड्वर्गीय भिक्षु नदीको पग्ले पार तककी सीमा निश्चित करते थे। उपोसथके लिये आने वयत भिक्ष् वह जाते थे, (उनको) पात्र-चीवर भी वह जाते थे। भगवान्ने यह बात कही।- "भिक्षुओ ! नदीको पानीमा नही निश्चित करनी चाहिये । जो निश्चित करे उगे दुवकटका दोपहो। भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, ऐनी जगह नदीके पार भी सीमा निश्चित करनेकी जहाँ हमेगा नेवाली नाव, या हमेगा रहनेवाला पुल हो।" 11
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