पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/२६०

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५०२।६ ] प्राणिहिंसाकी प्रेरणा [ २०९ "आइये भन्ते! चलें।" "आवुस ! मैं नहीं चल सकता । वीमार हूँ।" "आइये भन्ते! यानपर चढ़िये।" "नहीं आवुस! भगवान्ने यानका निषेध किया है।" इस प्रकार संकोच करके नहीं चढ़ा । तब उस भिक्षुने श्रा व स्ती जाकर भिक्षुओंसे यह बात कही। भिक्षुओंने भगवान्से यह बात कही ।- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, रोगीको यानकी।" 17 २-तब भिक्षुओंको यह हुआ~'क्या नर-जोते (यान), या मादा-जोते (यान) (से जाना चाहिये) ? ।' भगवान्ले यह बात कही।- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, नरजोते हत्थ वट्ट क की।" 18 (३) विहित सवारियाँ उस समय एक भिक्षुको यानकी चोटसे बहुत भारी पीळा हुई । भगवान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, गिविका, पालकी (=पाटं की) की।" 19 ( ४ ) महार्य शय्याका निषेध उन समय पड्वर्गीय भिक्षु उच्चा श य न, म हा ग य न जैसे कि कुर्सी (=आसंदी), पलंग, गोंळक, चित्रक, पटिक २(=गलीचा), पटलिक, तूलिक (=तोगक), विकतिक, उद्दलोमी एवन्तलोमी, कटिग्य, कौशेय, कुत्तक ऊनी बिछौना, हाथीका झूल, घोळेका झूल, रथका झूल, मृग-छाला, समूरी मृगका सुन्दर बिछौना, ऊपरकी चादर, (सिरहाने, पैरहाने ) दोनों ओर लाल तकियोंको धारण करते थे। बिहार में घूमते वक्त लोग देखकर हैरान.. होते थे-(०) जैसे कि काम-भोगी गृहस्थ ।' भगवान्ने यह बात कही-- "भिक्षुओ ! उच्चा श य न, म हा ग य न, जैसे कि- दोनों ओर लाल तकियोंको नहीं धारण करना चाहिये । जो धारण करे उसे दुवक ट का दोप हो।" 20 (५) सिह आदिकं चमळोंका निषेध उस समय पडदीय भिक्षु--'भगवान्ने उच्चा य य न, म हा ग य न का निपेध किया है- (यह गोच) बिह-वर्ग, व्याघ-चर्म, चीतेका चर्म इन (तीन) महा-चर्मोको धारण करते थे और उन्हें चारपाई के प्रमाणगे भी काट रखते थे, चौकीके प्रमाणने भी काट रखते थे। चारपाईके भीतर भी विद्या रखते थे. बाहर भी बिछा गयते थे। चौकीके भीतर नी०, वाहर भी दिछा रखते थे। विहार धूमते वक्त लोग दंपकर गन.. होते थे-(6) जने काम-भोगी गृहस्थ ।' भगवान्मे यह बात कही।- "शिक्षुओ ! महाचमों-निह, व्याघ, चीतके चर्मको नहीं धारण करना चाहिये । जो धारण कर उने दुकवाट का दोप हो।" 21 (६) प्राणिहिमाको प्रेरणा और चर्मधारणका निषेध न समय पर वर्गीय निक्ष. भगवान्ने महाचर्मोका निषेध किया है, (यह मोच) गायके चाम- 1 एड. तमहकी सवारी। दिनानवार विहानेका कम्बल। एर और दिनारीवाला विधानेका कम्बल ! शिवा जादानी पपत्रा।