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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/२७८

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६६३३१० ] निर्जन वनमें भोजन [ २२७ "भिक्षुओ! यदि भीतर रखे, वाहर पकाये, स्वयं पकायेका सेवन करे तो दो दुक्कटोंका दोप हो।" 80 "यदि भिक्षुओ! बाहर रखे, भीतर पकाये स्वयं पकेका सेवन करे तो दो दुक्कटों का दोष हो। 81 “यदि भिक्षुओ! भीतर रखे, बाहर पकाये (किन्तु) दूसरे द्वारा पकायेको भोजन करे तो (एक) दुक्कटका दोष हो। 82 "यदि भिक्षुओ! बाहर रखे, भीतर पकाये (किन्तु) दूसरों द्वारा पकायेका भोजन करे तो एक दुक्कटका दोष हो । 88 "यदि भिक्षुओ ! बाहर रखे, वाहर पकाये और अपने (हाथसे) पकायेका भोजन करे तो (एक) दुवकटका टोप हो। 84 "यदि भिक्षुओ ! बाहर रन्चे बाहर पकाये किन्तु दूसरों द्वारा पकायेका भोजन करे तो दोप नहीं।" 2-उस समय भिक्षु (यह मोचकर कि) भगवान्ने स्वयं पाकका निषेध किया है दोबारा पकाने में नव्हमें पके थे। भगवान्ने यह बात कही।--- "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ फिर पाक कन्नेकी।" 85 (९) दुर्भिक्षम आराममें रखे, पकाये तथा स्वयं पकायेका खाना विहित -~-उस समय गज गृह में दुर्भिक्ष था। लोग नमक भी, तेल भी, तंडुल भी खाद्य भी आराममें लाने थे। उन्हें भिक्षु बाहर रबबा देने थे और उन्हें हं बिल्लियां आदि भी खाती थीं। चोर भी ले जाते थे, जठा न्यानेवाले (दमयः) भी ले जाने थे । भगवान्ने यह बात कही।- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ भीनर ल्यवानकी।" 86 २.भीनर रखवाकर बाहर पकाते थे और जूठा ग्वानेवाले घेर लेते थे। भिक्षु विश्वास पूर्वक दा नहीं सकते थे । भगवान्गे यह बात कही।-- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ भीतर पवानेकी ।" 87 भिक्षमें कल्यवान्या (=भिक्षुओं काम करनेवाले) बहुत भागको ले जाते थे और थोळासा भिक्षीको देते थे । भगवान्गे यह बात कही।- "शिक्षओ ! अनुमति देता हूँ स्वयं पकानेकी-भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ भीतर रवग्वे, भीतर पकाये जान (अपने ) ताथले पकायेगी।"88 (१) निर्जन वन स्थानने स्वयं फल आदिका ग्रहण करना उगमन करने निभाने कानी (देश) में दावान कर भगवान्के दर्शनको गज गृह जाते मानामाग को भोजन आवश्यकतानुनार नसून नहीं पाया । बाने लायक फल बहुत कान का नही । वह भिक्षु तकलीफ पाते, जहाँ गइ गृह में वेणु व न . . . . . मा भगवान् ६. वहां गये। जागर भगवान्दो अभिवादनकर एक ओर अमरहिमान्य निशुओं मनाबार पूछे । नव नगवान्ने नसान बनेकोन दोला गन्ने बिना नकली तो आये? SEE सार निधनही रहा ने अपनी उठाकर देनेवाला