पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/२७९

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! २२८ ] ३-महावग्ग [ ६३।११ "अच्छा रहा भगवान् ! यापन योग्य रहा भगवान् ! भन्ते ! हम काशी (देशमें) वर्षावास कर ० मार्गमें तकलीफ़ पाते आये।" तब भगवान्ने उसी संबंध उसी प्रकरणमें धार्मिक कथा कह भिक्षुओंको संबोधित किया- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ जहाँपर ग्याने योग्य फलको देखो और कल्प्यकारक न हो तो स्वयं ले जाकर कल्प्यकारकको देख भूमिमें रग्ब फिर उसमे ग्रहण कर खानेकी। भिक्षुओ! लेने देनेकी अनु. मति देता हूँ।" 89 (११) भोजनोपरान्त लाये भक्ष्यकी अनुमति १-उस समय एक ब्राह्मणके पास नये तिल और नई मधु उत्पन्न हुई थी। तब उस ब्राह्मणको यह हुआ-'अच्छा हो मैं इन नये तिलों और नई मधुको बुद्ध सहित भिक्षु-संघको प्रदान करें।' तत्र वह ब्राह्मण जहाँ भगवान् थे वहाँ गया। भगवान्के साथ कुशल-प्रश्न पूछा...एक ओर खळा हुआ। एक ओर खळे उस ब्राह्मणने भगवान्से यह कहा- "आप गौतम भिक्षु-संघके साथ कलके मेरे भोजनको स्वीकार करें।" भगवान्ने मौनसे स्वीकार किया। तव वह ब्राह्मण भगवान्की स्वीकृतिको जान चला गया। तब उस ब्राह्मणने उस रातके वीत जानेपर उत्तम खाद्य-भोज्य तैयार करा भगवान्को कालकी सूचना दी- "भो गौतम ! भोजनका समय है। भोजन तैयार है।" तब भगवान् पूर्वाह्न समय पहनकर पात्र-चीवर ले जहाँ उस ब्राह्मणका घर था वहाँ गये। जाकर भिक्षु-संघके साथ बिछे आसनपर बैठे। तव वह ब्राह्मण बुद्ध प्रमुख भिक्षु-संघको अपने हाथसे उत्तम खाद्य-भोज्य द्वारा संतर्पित-सम्प्रवारित कर भगवान्के भोजनकर हाथ हटा लेनेपर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे उस ब्राह्मणको भगवान् धार्मिक कथा द्वारा. . .समुत्तेजित, सम्प्रहर्पितकर आसनसे उठ चले गये । भगवान्के चले जानेके थोळी ही देर बाद उस ब्राह्मणको यह हुआ-"जिनके लिये मैंने बुद्ध-सहित भिक्षु-संघको निमंत्रित किया था, उन्हीं नये तिलों और नये मधुको देना मैं भूल गया। क्यों न मैं नये तिलों और नये मधुको कूळों और घळोंमें भर आराममें लिवा ले चलूँ ।" तव वह ब्राह्मण नये तिलों और नये मधुको कूळों और घळोंमें भरकर आराममें लिवा, जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया। जाकर एक ओर खळा हुआ। एक ओर खळे उस ब्राह्मणने भगवान्से यह कहा- "भो गौतम ! जिनके लिये मैंने बुद्ध-सहित भिक्षु-संघको निमंत्रित किया था, उन्हीं नये तिलों और नये मधुको देना मैं भूल गया । आप गौतम उन नये तिलों और नये मधुको स्वीकार करें।" "तो ब्राह्मण ! भिक्षुओंको दे"। २–उस समय भिक्षु दुर्भिक्ष होनेसे थोळेसे भी बस कर देते थे। जानकर भी इनकार कर देते और सारा संघ पूर्ण कह देता था। भिक्षु संदेहमें पळ नहीं स्वीकार करते थे "भिक्षुओ! स्वीकार करो। भोजन करो।" "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ वहाँसे लाये हुएको भोजन पूत्ति हो जानेपर भी अतिरिक्त न हो तो उसे भोजन करनेकी।" 90 ३-उस समय आयुष्मान् उ प नं द शाक्य-पुत्रके सेवक कुटुम्बने संघके लिये खानेकी चीज़ भेजी और कहा-'यह खानेकी चीज़ आर्य उपनंदको दिखलाकर संघको देना।' उस समय आयुप्मान् उपनंद शाक्यपुत्र गाँवमें भिक्षाके लिये गये थे। तव आदमियोंने आराममें जाकर भिक्षुओंसे पूछा- "आर्य उ प नं द कहाँ हैं ?" “आवुसो! आयुष्मान् उ प नं द शाक्यपुत्र गाँवमें भिक्षाके लिये गये हैं।"