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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/२८४

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0 ५ $8219 ] अभध्य मांस [ २३३ भिक्षाके लिये जानेपर भिक्षुओंको भी हाथीका मांस देते थे, और भिक्षु हाथीका मांस खाते थे। लोग हैरान...होते थे—'कैसे गा क्य पुत्री य श्रमण हाथीका मांस खाते हैं ! हायी राजाका अंग है । यदि राजा जाने तो उनसे असंतुष्ट होगा।' भगवान्ये यह बात कही।- "भिक्षुओ! हाथीके मांसको नहीं खाना चाहिये। जो खाये उसे दुक्कटका दोप हो।"98 ३-उस समय राजाके घोने मरते थे "भिक्षुओ! घोलेका मांस नहीं खाना चाहिये । जो खाये उसको दुकटका दोप हो।" 99 ४-उस समय दुर्भिक्षके कारण लोग कुत्तेका मांस खाते थे ०।- "भिक्षुओ ! कुत्तका मांस नहीं खाना चाहिये। जो खाये उसको दुवकटका दोप हो।" 100 ५-उस समय दुभिक्षके कारण लोग साँपका मांस खाते थे ० । कैसे शावयपुत्रीय श्रमण साँपका मांस खाते हैं। सांप घृणित और प्रतिकूल होता है। मु फस्स (=मुस्पर्ग) नागराज भी जहाँ भगवान् थे वहाँ आकर भगवान्को अभिवान्नकर एक ओर बळा हुआ। एक ओर खळे सुफस्स नागराजने भग- वान्ने यह कहा- "भन्ते ! श्रद्धा-हीन प्रसन्नता-रहित नाग भी हैं। वह थोळीनी बातके लिये भी भिक्षुओंको तक- लीफ़ दे सकते हैं। अच्छा हो भन्ते ! आर्य लोग नाँचका मांन न वायें।" तब भगवान्ने सु फस्स नाग- राजको धार्मिक कथा द्वारा.. समुत्तेजित नम्प्रदर्पित किया। तब मुफन्म नागराज भगवान्की धार्मिक . . .समुत्तेजित सम्प्रहपित हो भगवान्को अभिवादनका, प्रदक्षिणाकर चला गया। तब भगवान्ने इसी संबंध टगी प्रकरणमें धार्मिक कथा कह भिक्षुओंको संबोधित किया "भिक्षुओ ! मापका मांस नहीं खाना चाहिये। जो वाये उसे दुक्रटका दोष हो।" ६---उस समय शिवारी सिहको मारकर निहवा मांन वाले थे। भिक्षुओंके भिवाचार करते वचत (उन्हें) सिहका मांस देने थे। भिक्षु मिहका मांस पावर जंगल में रहते थे। मिह-मांगके गंधसे भिक्षुओंको मारते थे। भगवान् से यह बात कही- "भिक्षुओ! सिहके मांसवो नहीं खाना चाहिये। जो लाये उसको दुवकटका दोष कथागे.. IOI हो।" 102 २ -उस समय शिकारी बायको मारकर दापका मान खाते थे "भिक्षओ ! वाधका मांस नहीं खाना चाहिये । जो खाचे उनको दृश्कटका दोष हो।" 103 ८-उस समय शिकान। चीते (ही पी)को मारकर चीतेश मान बाते थे ०२।- "भिक्षी ! चीतेका मांस नहीं खाना चाहिये । जो जाये उनको दृश्कटका दोष हो ।" 104 '. --उस सगर निकाली भालको नाम र नालका मांस याने थे ०।- "गो ! माल (अर) का नाम नहीं जाना चाहिये । जो बाये उनको दुवकटका je ii 105 निदानी न हद(. कमालो मन्दर मांग समानही ना कहनेजोमाने ने कटवा दोष हो। 106 सुप्रिय भापहार समाप्त ॥३॥