पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/३११

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२५८ ] ३-महावग्ग [ Gf२४ $२-कठिन चीवरका उद्धार (उत्पत्ति) (१) कठिनको उत्पत्ति "भिक्षुओ ! कैसे कठिन उत्पन्न होता है ? भिक्षुओ ! कठिन की उत्पत्तिमें यह आठ मातृका (उत्पादिका) हैं, प्रक्र म णा न्ति का, निष्ठानान्तिका, गनिष्ठानान्तिका, नागनान्तिका, सवनान्तिका, आसावच्छेदिका, सीमातिवकन्तिका, उत्पत्तिके साथ।" (२) सात श्रादाय (१) भिक्षुओ ! कठिनके आस्थत (=प्रसारित) हो जानेपर बने चीवरको ले चल देता है फिर नहीं लौटता। ऐसे भिक्षुको प्र क म णा न्ति क (=चला जाना अन्न है जिसका) नामक कठिन का उद्दार होता है । (२) भिक्षु कठिनके आस्थत हो जानेपर चीवरले चला जाता है किन्तु सीमाके वाहर जानेपर उसे ऐसा होता है 'यहीं इस चीवरको बनाऊं फिर न लौटूंगा।' और वह उस त्रीवरको बनवाता है । ऐसे भिक्षुको नि ष्ठा ना न्ति क (=बनवा चुकना अन्त है जिसका) नामक कठिन-उद्धार होता है ।' (३) भिक्षु कठिनके आस्थत हो जानेपर चीवरको ले चल देता है और सीमाके बाहर जानेपर उसको ऐसा होता है-'न इस चीवरको वनवाऊँगा न फिर लौटूंगा ।' उस भिक्षुको स नि का ना- न्ति क (=जिसका समाप्त करना बाकी है, यह अन्त है जिसका) कठिन-उद्धार होता है । (४) चीवरको लेकर चल देता है और सीमाके बाहर जानेपर उसे ऐसा होता है—'यहीं इस चीवरको बनवाऊँ और फिर न लौटूं।' वह उस चीवरको वनवाता है और बनवाते वक्त उसका वह चीवर नष्ट हो जाता है । उस भिक्षुका नाशनान्तिक (= नाश हो जाना ही अन्त है जिसका) कठिन-उद्धार होता है। (५) ० चीवरको लेकर चल देता है (यह सोचकर कि) लौटूंगा। सीमाके बाहर जा उस चीवरको बनवाता है । चीवर बन जानेपर वह सुनता है कि उस आवासमें कठिन उत्पन्न हुआ । उस भिक्षुको श्र व णा न्ति क (=सुनना है अन्त जिसका) कठिन उद्धार होता है । (६) ० चीवरको लेकर 'फिर लौटूंगा' (सोच) चल देता है और सीमाके बाहर जाकर उस चीवरको बनवाता है । वह- चीवर बन जानेपर 'फिर आऊँगा' 'फिर आऊँगा'- (सोचते) बाहर ही कठिनके उद्धारके समयको बिता देता है । उस भिक्षुको सी मा ति क्क न्ति क (=सीमा अतिक्रमण कर दिया गया है जिसमें) कठिन- उद्धार होता है० (७) चीवरको लेकर-'फिर आऊँगा' (सोच) चल देता है और सीमाके बाहर उस चीवरको बनवाता है । वह–चीवर वन जानेपर 'फिर आऊँगा फिर आऊँगा' '(सोचते) कठिन उद्धारकी प्रतीक्षा करता है । उस भिक्षुका (दूसरे) भिक्षुओंके साथ कठिन उद्धार होता है।" आदाय सप्तक समाप्त 9 (३) सात समादाय सप्तक (१) भिक्षु ! कठिनके आस्थत हो जानेपर बने चीवरको ठीकसे ले चल देता है०१ । समादाय सप्तक समाप्त (४) छ आदाय “(१) भिक्षु ! कठिनके आस्थत हो जानेपर न बने चीवरको लेकर चल देता है। सीमाके बाहर जानेपर उसे ऐसा होता है—'यहीं चीवर वनवाऊँ और फिर न लौ ।' और वह उस चीवरको की जगह 'ठीकसे १ ऊपरकी तरह यहाँ भी सातों पाठ हैं, सिर्फ ऊपरके ले चल देता है। लेकर चल देता है' कहना चाहिये ।