पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/३१५

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२६२ ] ३-महावग्ग [७२।१० ३-"(१) भिक्षु कठिन के आस्थत हो जानेगे 'फिर लौटूंगा' (सोच) चीवरकी आगाने चल देता है । वह सीमाके बाहर जा उस चीवरकी आगाका सेवन करता है । आगा होनेपर पाता है न आगा होने पर नहीं पाता । वह उस नीवरको बनवाना है बीबर बन जानेपर सुनता है-'उम आवासमें कठिन उत्पन्न (? ग्या) है।' उग भिक्षुको थ व णा न्ति क कठिनोद्वार होता है। (२)०१ 'फिर लौटंगा'. यहीं ३ग चीवरकी आगाका सेवन करें और फिर न लौट ।० आ शो पच्छे दिक कठिनोद्धार होता है । (३) ० 'फिर लौटुंगा' मीमाके बाहर जाकर उस चीवरकी आगाका सेवन करता है । आशा होनेपर पाता है, न आगा होने पर नहीं पाता। चीवर बन जानेपर- 'लौटूंगा, लौटूंगा' (कहता) बाहर ही कठिनोद्धार (के समय) को बिना देता है । उस भिक्षको सी मा- ति का न्ति क कठिनोद्धार होता है। (८) ० 'फिर लौटुंगा' आगा होनेपर पाता है। वह उस बीबर को बनवाता है । चीवर बन जानेपर 'लौटूंगा लोटूंगा' कह कठिनोद्धारको प्रतीक्षा करता है । उम भिक्षुका (दूसरे) भिक्षुओंके साथ कठिनोद्धार होता है।" आशा द्वादशक समाप्त (१०) करणीय-पूर्वक कठिनोद्धार १-"(१) भिक्षु कठिनके आस्थत हो जानेपर किसी काम (=करणीय) से चला जाता है । सीमासे बाहर जानेपर उसे चीवरकी आशा उत्पन्न होती है। वह उस त्रीवरकी आशाका सेवन करता है। न आशा होनेपर पाता है, आशा होनेपर नहीं पाता है । उसको ऐसा होता है-यहीं इस चीवरको बनवाऊँ और फिर न लौटूं। वह उस चीवरको बनवाता है। उस भिक्षुको नि ष्ठा ना न्ति क कठिन-उद्धार होता है। (२) ० करणीयसे चला जाता है । ० सीमाके बाहर जानेपर उसे चीवरकी आशा उत्पन्न होती है । वह उस चीवरकी आशाका सेवन करता है । न आशा होनेपर पाता है, आशा होनेपर नहीं पाता । उसको ऐसा होता है-'न इस चीवरको बनवाऊँ, न फिर लौटूं;' उस भिक्षुको सन्नि ष्ठा नां ति क कठिन-उद्धार होता है । (३) ० करणीयसे चला जाता है। ० आशा होने पर नहीं पाता । उसको ऐसा होता है—'यहीं इस चीवरको वनवाऊँ और फिर न लौटूं।' वह उस चीवरको बनवाता है । बनवाते समय उसका चीवर नष्ट हो जाता है । उस भिक्षुको ना श ना न्ति क कठिनोद्धार होता है । (४) • करणीयसे चला जाता है । सीमाके बाहर जानेपर उसे चीवरकी आशा उत्पन्न होती है । उसको ऐसा होता है-यहीं इस चीवरकी आशाका सेवन करूँ और फिर न लौटू । वह उस चीवरकी आशाका सेवन करता है। और उसकी वह चीवरकी आशा टूट जाती है । उस भिक्षुको आ शो पच्छे दि क कठिनोद्धार होता है । २-"(१) भिक्षु कठिनके आस्थत होनेपर किसी काम (=करणीय) से 'फिर न लौटूंगा (कह) चला जाता है । सीमाके बाहर जानेपर उसे चीवरकी आशा उत्पन्न होती है । वह उस चीवर की आशाका सेवन करता है। न आशा होनेपर पाता है, आशा होनेपर नहीं पाता । उसको ऐसा होता है—'यहीं इस चीवरको बनवाऊँ । वह उस चीवरको बनवाता है। उस भिक्षुको निष्ठा नां तिक कठिनोद्धार होता है । (२) ० करणीयसे फिर न लौटूंगा' (कह) चला जाता है • आशा होनेपर नहीं पाता ० । सन्नि ष्ठा नां ति क कठिन-उद्धार होता है । (३) करणीयसे फिर न लौटूंगा (कह) चला जाता है • आशा होनेपर नहीं पाता ० नाश ना न्ति क कठिन-उद्धार होता है । (४) करणीयसे 'फिर न लौटूंगा' (कह) चला जाता है० सीमाके बाहर जानेपर उसे चीवरकी आगा 0 १ सन्निष्ठानांतिककी तरह यहाँ भी समझो।