पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/३१७

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२६४ ] ३-महावग्ग [ ७१ है-'अमुक आवासमें जाऊँगा। वहाँ भि मेरे लिये चीवर बना देंगे।' वह ऐसा बोलते हैं-'नहीं आवुस ! मत जायो। हम तुम्हारे लिये यहां चीवर बना देंगे' उसको ऐसा होता है-'न इस चीवर को बनवाऊँ, न फिर लौटूं।' उस भिक्षुको स निप्छा ना लिक कठिनोद्वार होता है । (३) • उसको ऐसा होता है-'यहीं इस त्रीवरको बनवाऊँ, फिर न लौटूं।' वह उस चीवरको बनवाता है । बनवाने समय उसका चीवर नष्ट (- गुम) हो जाता है । उस भिक्षुको नाश नां ति क कठिनोद्धार होता है। ३-"(१) ० अप विनय करते दिशामें जाने के लिये चल देता। वह उस चीवरको लेकर उसी आवासमें जाता है । उस आवारामें जानेपर उगे ऐना होता है-'यहीं इस चीवरको बनवाऊँ। फिर न लौ ।' वह उस चीवरलो बनवाता है । उन भिक्षुको नि प्ठा नां ति क कठिनोद्धार होता है। (२) उसको ऐसा होता है—न इस चीवरको बनवाऊँ न फिर लौटुं ।' उम भिक्षुको सन्नि प्ठा ना तिक कठिनोद्धार होता है । (३) ० उस भिक्षुको ऐसा होता है-'यहीं इस चीवरको बनवाऊँ और फिर न लौटूं।' वह उस चीवरको बनवाता है । बनवाते समय उसका वह चीवर नष्ट हो जाता है। उस भिक्षुको ना श ना न्ति क कठिनोद्धार होता है ।" नव अपविनय समाप्त ( १२ ) सुख-पूर्वक विहारवाला कठिनोद्धार "१-भिक्षु कठिनके आस्थत हो जानेपर सुख विहार (=प्राशुविहार) के लिये त्रीवर ले चला जाता है-अमुक आवासमें जाऊँगा। वहाँ मेरा सुखपूर्वक विहार होगा, वहाँ मैं बसुंगा । यदि मुझे प्रा शु (=अच्छा) न होगा तो अमुक आवासमें जाऊँगा। वहाँ मुझे प्रा शु होगा; और वसूंगा। यदि मुझे प्रा शु न होगा तो अमुक आवासमें जाऊँगा। वहाँ मुझे प्राशु होगा, वसुंगा । यदि मुझे प्रागुन होगा तो लौट आऊँगा।' सीमाके बाहर जानेपर उसे ऐसा होता है—'यहीं इस चीवरको बनवाऊँ और फिर न लौटूं।' वह उस चीवरको वनवाता है । उस भिक्षुको निप्ठानांतिक कठिनोद्धार होता है। "२-० यदि मुझे प्राशु (=अनुकूल) न होगा तो लौट आऊँगा । सोमाके बाहर जानेपर उसे ऐसा होता है, न इस चीवरको वनवाऊँगा और न लौटूंगा। उस भिक्षुको सं नि प्ठा नां ति के कठिन-उद्धार होता है। "३–० 'यदि प्राशु न होगा तो लौट आऊँगा।' सीमाके बाहर जानेपर उसको ऐसा होता है—'यहीं इस चीवरको बनवाऊँगा । फिर न लौटूंगा।' वह उस चीवरको बनवाता है । बनवाते समय उसका वह चोवर नष्ट हो जाता है । उस भिक्षुको ना श नां ति क कठिनोद्धार होता है । "४-० 'नहीं प्राशु होगा तो लौट आऊँगा।' वह सीमासे बाहर जा उस चीवरको वनवाता है । चीवरके बन जानेपर 'लौटूंगा लौटूंगा' कहता बाहरही कठिनोद्धार (के समय)को विता देता है । उस भिक्षुको सी मा ति क्रांति क कठिनोद्धार होता है । "५-० 'यदि न प्राशु होगा तो लौट आऊँगा।' वह सीमासे बाहर जा उस चीवरको वनवाता है । चीवर वन जानेपर 'लौटूंगा, लौटूंगा' कह कठिनोद्धारकी प्रतीक्षा करता है । उस भिक्षुको (दूसरे) भि क्षु ओं के सा थ कठिन-उद्धार होता है।" पाँच प्राशु-विहार समाप्त ७३-कठिन चीवरके विघ्न और अ-विन्न "भिक्षुओ ! कठिनके दो विघ्न हैं, और दो अविघ्न ।—कौनसे भिक्षुओ ! क ठिन के दो विध्न हैं ?-आवासका विघ्न और चीवरका विघ्न ।