पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/३३१

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'पत्थर या किसी और चीजका रंगनेका विशाल पात्र, जिसका एक पुराना नमूना सांचीमें २७८ ] ३-महावन [ ८३५ "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ छ रंगोंकी-(१) मूल (=जळसे निकला) रंग, (२) स्कंध- रंग, (३) त्वक् (छालका)-रंग, (४) पत्र (=पत्तेका) रंग, (५) पुप्प-रंग, (६) फल-रंग।" 25 (२) रंग पकाना १-उस समय भिक्षु कच्चे रंग रेंगते थे, और नीवर दुर्गन्धयुक्त होते थे। भगवान्से यह बात कही। "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ रंग पकानेकी और रंगके छोटे मटकेकी ।" 26 २-रंग उतर आता था। भगवान्नो यह बात रही।- "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ उत्त रा लुम्म बाँधनेकी ।" 27 ३-उस समय भिक्षु नहीं जानते थे कि रंग पका कि नहीं। भगवान्ने यह बात कही।- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ पानीमें या ननपर बूंद डाल (कर परीक्षा ले)नेकी ।” 28 (३) रंगके वर्तन १-उस समय भिक्षु रंग उतारते समय हळियाको खींचते थे जिससे हळ्यिा टूट जाती थी। भगवान्से यह बात कही ।- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ रंगके नांदकी, और दंडसहित थालकी ।" २-उस समय भिक्षुओंके पास रँगनेका वर्तन न था । भगवान्ने यह बात कही।- "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ रंगके कूळेकी, रंगके घळेकी।" 29 ३-उस समय भिक्षु थालीमें भी, पत्तेपर भी, चीवरको मलते थे । चीवर लसर जाते थे। भगवान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ र ज न - द्रोणी 130 (४) चोवर सुखानेके सामान १-उस समय भिक्षु जमीनपर चीवर फैला देते थे और चीवरमें धूल लग जाती थी। भगवान्ते यह बात कही।- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ तृणकी सँथरीकी।" 31 २-तृणकी सँथरीको कीड़े खा जाते थे। भगवान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ चीवर (फैलाने) के वाँस और रस्सीकी।" 22 (५) रंगाईका ढंग १-बीचमें डालते थे और रंग दोनों ओरसे बह जाता था। भगवान्से यह बात कही। "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ कोनोंके बाँधनेकी।" 33 २-कोने निर्वल हो जाते थे। भगवान्से यह बात कही।- "भिक्षुओ! अनुमति देता हूँ कोना बाँधनेके सूतकी।" 34 ३-~-रंग एक ओरसे वहता था। ०।- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ वरावर उलटते हुए रंगनेकी, और बूंदकी धार न टूटेमें, न हटाने की।" 35 १ पकानेके वर्तनके बीचमें रखनेका सामान । मौजूद है।