पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/३३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- ८६४।६] वपिकशाटी आदिका विधान [ २८३ "बोल विशाखे ! "भन्ते ! (१) में यावत्जीवन संघको वर्पाकी व पि क सा टि का (बरसातके लिये धोती) देना चाहती हूँ, (२) नवागन्तुकोंको भोजन देना; (३) प्रस्थान करनेवालोंको भोजन देना; (४) रोगीको भोजन देना; (५) रोगी परिचारकको भोजन देना; (६) रोगीको दवा देना; (७) सदा सबेरे यवागू (= खिचळी) देना; (८) भिक्षुणी-संघको उ द क सा टी १ देना।" “विगाखे ! क्या बात देख तूने तथागतये आठ वर माँगे ?" १--"भन्ते ! मैंने दासीको आज आना दी--'जारे ! आराममें जाकर कालकी सूचना दे-- (भोजनका) काल है, भन्ते ! भोजन तैयार है--'तब उस दासीने आराममें जाकर देखा कि भिक्षु लोग कपड़े फेंक गरीरको वर्षा ग्विला रहे हैं, और मेरे पास. . .आकर कहा--'आयें ! आराममें भिक्षु नहीं हैं। आ जी व क गरीरको वर्षा खिला रहे हैं।' भन्ने ! नग्नता गंदी, घृणित, बुरी चीज़ है । भन्ते ! यह बात देव में संघको यावत् जीवन व पि क सा टि का देना चाहती हूँ। २--"और फिर भन्ने! नवागन्तुक भिक्षु गलीको नहीं जानते, रास्तेको नहीं जानते, थके हुए भिक्षाटन कन्ते हैं। वह मेरे दिये नवागन्तुकके भोजनको खा, गली जाननेवाले, रास्ता पहिचाननेवाले हो, थकावट दूरकर भिक्षाचार करेंगे । भन्ते ! इस वानको देख में संघको यावत् जीवन नवागन्तुकको भोजन देना चाहती हूँ।

--"और फिर भन्ने प्रस्थान करनेवाले भिक्षुओंको अपना भोजन ढूंढ़ते वक्त उनका कारवाँ

छूट जाता है, या जहाँ वह निवास करनेको जाना चाहते हैं वहाँ वि का ल (= अपराह्ण) में पहुंचेंगे, थके हुए गन्ना जायँगे । मेरे प्रस्थान करनेवालोंक भोजनको खाकर उनका काग्वाँ न छूटेगा और जहाँ वह जाना चाहते है वहाँ कालने पहुंचेंगे। विना थकावटके गन्ना जायेंगे। भन्ते इस बातको देख मैं चाहती हूँ संघको जीवन भर ग मि व - भोजन (प्रस्थान करनेवालोंको भोजन) देनेकी । ४--"और फिर भन्ते! रोगी भिक्षुको अनुकूल भोजन न मिलनेने रोग बढ़ता है या मृत्यु होती है । भन्ते ! मेरे गेगी भोजनको खाकर उनका रोग नहीं बढ़ेगा, न मृत्यु होगी। भन्ते ! इस बानको देख मं चाहती हूँ जीवन भर संघको रोगी-भोजन देना। ५-"और फिर भन्ते ! रोगी-परिचारक भिक्षु अपने भोजनकी खोजमें रोगीके पास चिरमे भोजन ले जायंगा या उस दिन खा न सकेगा। यदि वह गोगी-परिचारकके भोजनको खाकर रोगीके लिये कालने भोजन ले जायेगा तो भक्त च्छे द (: भोजन न मिलना) न होगा । भन्ते ! इस बातको देय में चाहती हैं संघको जीवन भर रोगि-परिचारका-भोजन देना। ६.-"और फिर भन्ने ! रोगी-भिक्षु को अनुकूल नैपज्य न मिलनेपर रोग बढ़ता है या मृत्यु होती । मेरे रोगी-भपज्यको सहण करनेने न उनका रोग बढ़ेगा, न मृत्यु होगी। भन्ने इन वातको देख मैं चाहती गंधको यावत् जीवन जोगी-पग्य देना। -