पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/३३७

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२८४ ] ३-महावग्ग [1913 पर वह भिक्षुणियाँ चुप हो गई। भन्ले ! स्त्रियोंकी नग्नता गंदी, घृणित, बुरी (चीज़) है । भन्ने ! इस वातको देख में चाहती है कि भिक्षणी गंगको यावत् जीवन उद क मा टी देना।" “विगा ये ! तुने किम गुणको देव तथा गतगे आठ बर मांगे ?' "भन्ने ! जब दिनाओंमें वर्गवाकर भिक्ष धा व न्ती में भगवान्के दर्शन के लिये आयेंगे तब भगवान् के पान आकार खेंगे--'भन्ने अमन नागवाला भिक्ष मर गया। उनकी क्या गति है ? क्या परलोक है ? उसके लिये भगवान् श्रोत - आ पनि - फ. ल. गदा गा मि - फल, अ ना गा मि - फल, या अहं त्व का व्याकरण करेंगे। उनके पास जाकर में पुडूंगी---'रया भन्ने ! बह (मृत) आयं श्रावस्ती- में कभी आये थे ? यदि वह मुझने कहेंगे--'बह भिक्ष पह पावन्नी आया था तो मैं निश्चय कर लंगो निस्संगय उस आर्यने ग्रहण किया होगा व पिक गा टिका को या न बा ग न्तु क भोजनको, या ग मिक- भोजनको या रो गि - भोज न को. या गेगि - पग्निान्न भोजनको, या रो गि- भैषज्यको या महाके यवागूको । उसको यादकर मेरे जिनमें प्रमोद होगा, प्रमुदित होनेने प्रीति उत्पन्न होगी, प्रीतियुक्त होने पर काया शान्त होगी, काया मान्न होनेपर मुन -अनुभव काँगी और मुग्विनी होनेपर मेग चिन समाधि- को प्राप्त होगा और वह होगी मेरी इन्द्रि ग-भावना. बल-भावना, बोध्यं ग-भावना । भन्ने ! इस गुण- को देख मैने तथागतने आठ बर मांगे।" "साधु ! साधु ! विगाग्वे, तूने इन गुणोंको ठीक ही देव तथागतने आठ वर मांगे । विगावे ! स्वीकृति देता हूँ तुझे आठ वरोंकी ।' तब भगवान्ने वि शा खा मृ गा र मा ता को इन गाथाओंसे अनुमोदन किया- "जो शीलवती, सुगतकी शिष्या प्रमुदित हो अन्न, पान देती है। कृपणताको छोड़ शोक-हारक, सुख-दायक, स्वर्ग-प्रद दानको देती है । वह निर्मल, निर्दोप, मार्गको या दिव्यबल और आयुको प्राप्त होगी। पुण्यकी इच्छावाली वह सुखिनी और नीरोग हो चिरकाल तक स्वर्ग-लोकमें प्रमोद करेगी।" तब भगवान् विशाखा मृगारमाताका इन गाथाओंसे अनुमोदनकर, आसनसे उठ चले गये। तव भगवान्ने इसी संबंधमें इसी प्रकरणमें धार्मिक कथा कह भिक्षुओंको संबोधित किया- "भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, वर्षिक-साटिकाकी, नवागंतुक-भोजनकी, गमिक-भोजनकी, रोगि- भोजनकी, रोगि-परिचारक-भोजनकी, रोगि-भैपज्यकी, सदाके यवागूकी, और भिक्षुणी-संघको उदक- साटीकी।" 44 विशाखा भाणवार समाप्त (७) काया, चीवर और आसन आदिको सँभालकर वैठना उस समय भिक्षु उत्तम भोजन खाकर स्मृति और संप्रजन्य (=जागरूकता) रहित हो नींद लेते थे। स्मृति और संप्रजन्य रहित हो नींद लेनेसे उनको स्वप्नदोप होता था और आसन वासन अशुचिसे मलिन होता था। तब आयुष्मान् आनंदको पीछे ले आश्रम घूमते वक्त भगवान्ने, आसन वासनको अशुचि-पूर्ण देखा। देखकर आयुप्मान् आनंदको संबोधित किया-"आनंद क्यों ये आसन-वामन मलिन हो रहे हैं ? "भन्ते ! इस समय भिक्षु उत्तम भोजन खाकर स्मृति और सं प्रजन्य रहित हो नींद लेते हैं। स्मृति और संप्रजन्य रहित हो नींद लेनेसे उनको स्वप्नदोप होता है और आसन-वासन अशुचिसे मलिन होता है।" "यह ऐसा ही है आनंद ! यह ऐसा ही है आनंद! आनंद ! स्मृति संप्रजन्य रहित हो निद्रा लेतेको स्वप्नदोप होता ही है । आनन्द ! जो भिक्षु स्मृति और संप्रजन्य से युक्त हो निद्रा लेते हैं उनको