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पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/३४७

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२९४ ] ३-महावग्ग [ CSC (=टाट) पहनकर जहाँ भगवान् थे वहां गया ।--१ "भिक्षुओ! पोत्यकको नहीं पहनना नाहिये । जो पहिने उसको दुक्कटका दोप हो।" 75 (३) विल्कुल नीले पीले आदि चीवरोंका निषेध उस समय पइ व गीय भिक्षु नारे ही नीले चीवरोंको धारण करते थे, सारे ही पीले चीवरोंको धारण करते थे, सारे ही लाला, नारे ही मजीठ०, सारे ही काले०, सारे ही महारंगसे रंगे०, सारे ही म हा ना म ( हल्दी) ने रंगे नीबरोंको धारण करते थे। कटी किनारीवाले चीवरोंको धारण करने थे; लंबी किनारीके त्रीवरोंको धारण करते थे: फूलदार किनारीवाले बीबरोंको धारण करते थे, फन (की शकलकी) किनारीवाले चीबगेको धारण करने थे। कंनुक धारण करते थे। निरीटक (=एक छाल) को धारण करते थे। बेठन धारण करते थे। लोग हैरान.. होने थे-'कैसे जैसे कि काम- भोगी गृहस्थ ।' भगवान्से यह बात कही ।- "भिक्षुओ! न सारे नीले चीवरोंको धारण करना नाहिये, न मारे पीले चीवरोंको धारण करना चाहिये ० न वेठन धारण करना चाहिये । जो धारण करे उने दु तक ट का दोप हो।" 76 (४) चोवर आदिके न मिलनेपर सङ्घका कर्तव्य १--उस समय वर्षावासकर भिक्षु चीवर न मिलनेगे चले जाते थे, भिक्षु-आश्रम छोळकर चले जाते थे। मर भी जाते थे। श्रामणेर बन जाते थे। (भिक्षु-) शिक्षाका प्रत्याख्यान करनेवाले हो जाने थे। अन्तिम वस्तु (=पा रा जि क) के दोषी माननेवाले भी हो जाते थे, उन्मत्त०, विक्षिप्त-चित्त होश न रखनेवाले०, दोप न देखनेपर भी (अपनेको) उत्क्षिप्त क माननेवाले होते थे, दोपके प्रतिकार न करनेवाले उत्क्षिप्तक भी०, बुरी धारणाको न त्यागनेसे (अपनेको) उत्क्षिप्तक माननेवाले होते थे, पंडक भी०, चोरके साथ वास करनेवाले भी०, तीथिकके पास चले जानेवाले भी०, तिर्यक् योनि में गये भी०, मातृघातक भी०, पितृघातक भी०, अर्हत् घातक भी०, भिक्षुणीदूपक भी०, वाले भी०, (बुद्धके शरीरसे) लोहू निकालनेवाले भी०, (स्त्री पुरुष) दोनोंके लिंगवाले भी (अपनेको) बतलानेवाले होते थे। भगवान्से यह बात कही।- "यदि भिक्षुओ ! वर्षावासकर भिक्षु, चीवरके न पानेसे चला जाता है तो योग्य ग्रा ह क होने पर देना चाहिये। 77 (५) चीवरोंका सङ्घ मालिक १--"यदि भिक्षुओ! वर्षावासकर भिक्षु चीवरके न पानेसे भिक्षु-आश्रमको छोळ जाता है, मर जाता है, श्रामणेर०, (भिक्षु-) शिक्षाका प्रत्याख्यान करनेवाला०, अंतिम वस्तुका दोषी अपनेको माननेवाला होता है, तो संघ मालिक है। 78 २–“यदि ० उन्मत्त० बुरी धारणाके न त्यागनेसे उत्क्षिप्तक मानता है तो योग्य ग्राहक होने पर देना चाहिये। 79 ३---"यदि०, पंडक०, दोनों लिंगोंवाला माननेवाला होता है तो संघ मालिक है।" 80 ४-“यदि भिक्षुओ! वर्षावासकर चीवरके मिलनेपर (किन्तु उसके) बाँटनेसे पहले चला जाता है तो योग्य ग्राहक होनेपर देना चाहिये। 81 संघमें डालने- १ऊपरको तरह यहाँ भी समझना चाहिये। मिलाओ चुल्लवग्ग भिक्षुणी-स्कन्धक (पृष्ठ ५१९) । पशु और प्रेत की योनि। ३चीवर आदि देकर संग्रह करने योग्य ।