पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३४६ ] ४-चुल्लवग्ग [ १९२।१ चाहिये--(११) प्रकृतात्म भिक्षुके उपोसथको स्थगित नहीं करता (१२) (०की) प्रवारणा स्थगित नहीं करता; (१३) बात बोलने लायक (काम) नहीं करता; (१४) अनुवादको नहीं प्रस्थापित करता; (१५) अवकाश नहीं कराता ; (१६) प्रेरणा नहीं कराता (१७) स्मरण नहीं कराता; (१८) भिक्षुओंके साथ सम्प्रयोग नहीं करता।" 39 अट्ठारह प्रतिप्रश्रब्ध करने लायक समाप्त (९) दंड माफ करने की विवि "और भिक्षुओ! इस प्रकार माफ़ी देनी चाहिये ।४०वे पंडु क और लो हि त क भिक्षु संघके पास जा एक कंधेपर उत्तरासंगकर (अपनेसे) वृद्ध भिक्षुओंके चरणोंमें वंदनाकर, उकळू बैठ हाथ जोळ, ऐसा बोले---'भन्ते ! हम संघ द्वारा त ज नी य -कर्म से दंडित हो ठीकसे वर्तते हैं, लोम गिराते हैं, निस्तार (के काम ) को करते हैं, तर्ज नी य - क र्म से माफ़ी चाहते हैं । दूसरी बार भी ० । तीसरी बार भी- 'भन्ते ! ० तर्जनी य - क र्म से माफ़ी चाहते हैं । "(तव) चतुर समर्थ भिक्षु संघको सूचित करे- "क. ज्ञप्ति-भन्ते ! संघ ! मेरी सुने, यह पंडु क (और) लो हि त क भिक्षु संघ द्वारा तर्जनी य - क र्म से दंडित हो ठीकसे वर्तते हैं, तर्जनीय-कर्मसे माफ़ी चाहते हैं। यदि संघ उचित समझे, तो संघ पंडु क, लो हि त क भिक्षुओंके तर्जनीय-कर्मको माफ़ करे--यह सूचना है। "ख. अनुथा व ण -(१) भन्ते ! संघ ! मेरी सुने, यह पं डु क ( और ) लो हि त क भिक्षु संघ द्वारा तर्ज नी य - कर्म से दंडित हो ठीकसे वर्तते हैं। तर्जनीय-कर्ममे माफ़ी चाहते हैं । संघ पंडु क (और) लोहितक भिक्षुओंके तर्ज नी य - क र्म को माफ़ कर रहा है, जिम आयुग्मान्को पंडु क (और) लो हि त क भिक्षुओंके तर्जनीय-कर्मकी माफ़ी पसंद है, वह चुप रहे, जिसको पसंद नहीं है. वह वोले । “(२) दूसरी बार भी इसी बात को कहता हूँ--भन्ते ! मेरी गुने-~-०। "(३) तीसरी बार भी इसी बात को करता हूँ--भन्ते ! संघ मेरी गुने.. जिम आयुष्मान्को पंडु क (और, लो हि त क भिक्षुओंके तर्जनीय-कर्म की माफ़ी पसंद है, वह चुप रहे, जिगको पगंद नहीं है, वह वोले । धारणा ०-' -'संघने पंडु क और लो हि त क भिक्षुओंके तर्जनीय-कर्मको माफ़ कर दिया; मंघको पसंद है, इसलिये चुप है-ऐसा मै इने समझता हूँ।" तर्जनीय-कर्म समाप्त . ६२-नियम्स कर्म (१) नियम्स दंडक प्रारम्भको कथा उस समय आयुष्मान् नेव्यसक (श्रेयन्क) बाल (मुर्ग), अचतुर, बगवर आनि कया, अपदान रहित, प्रतिकुल गृहस्थ मंमगान युक्त थे. और उनको भिध, प्रकृतात्मक (योनि), परिवाम देते,भूलने प्रतिकर्षण कन्ने (थे) मानन्य देते, आन (थे)। जो यह अल्पकानि हैरान.. होते-'कने आयुष्मान् ने य्य स क , बाल होने ! और उनको भिक्ष आहान करें।' तय ग भिक्षुओंने भगवान्ने यह बात कही । "मत्रमुच निधी?" "(हाँ) मचमुच भगवान्