पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४०९

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३५० ] ४-चुल्लवग्ग [ १९३१ यह कहते थे-'भगिनी यहाँ नाचो।' ललाटिका (एक ललाटका आभूपण) को भी लगाते थे। और नाना प्रकारके अनाचारको करते थे। उस समय एक भिक्षु का शी (देश) में वर्षावास कर भगवान्के दर्शनके लिये (श्रावस्ती) जाते (समय) जहाँ की टा गि रि है वहाँ पहुँचा। तव वह भिक्षु पूर्वाह्णमें पहनकर पात्र-त्रीवर ले श्रद्धा उत्पन्न करनेवाले गमन-आगमन (के ढंग) से आलोकन-विलोकनसे (हायके) समेटने-पसारनेसे नीत्री नज़र करके ईर्यापथ से मुक्त हो की टा गि रि में प्रविष्ट हुआ । लोग उस भिक्षुको देखकर ऐसा कहने लगे- 'यह कौन निर्वल-दुर्बल जैसा, धीरे धीरे भाकुटिक (=पाखंडी) भाकुटिक जैसा है ? कौन आनेपर इसको भीख भी देगा? हमारे आर्य अश्व जि त् और पुनर्वसु तो स्नेह युक्त सखिल (सखा- भाव युक्त) सुख-पूर्वक सम्भापण करने योग्य खोजनेपर पहले जानेवाले, 'आओ ! स्वागत' वोलनेवाले, भौंह न चढ़ानेवाले, खुले मुंहवाले, पहले बोलनेवाले हैं। उन्हें भिक्षा देनी चाहिये ।' एक उपासक उस भिक्षुको की टा गि रि में भिक्षाटन करते देख जहाँ वह भिक्षु था वहाँ गया। जाकर उस भिक्षुको अभिवादन कर यह बोला- "क्या भन्ते ! भिक्षा मिली ?" "आवुस ! भिक्षा नहीं मिलती।" "आओ भन्ते ! घर चलें।" तव वह उपासक उस भिक्षुको (अपने) घर लेजा, भोजन करा यह वोला- "भन्ते ! आर्य कहाँ जायँगे ?" "आवुस मैं भगवान्के दर्शनके लिये श्रावस्ती जाऊँगा।" "तो भन्ते ! मेरे वचनसे भगवान्के चरणोंमें शिरसे वन्दना करना और यह कहना---'भन्ते ! की टा गिरि का आवास दूपित हो गया है। अश्व जित् और पु न र्व मु नामक (दो) निर्लज्ज, पाणी भिक्षु की टा गिरि में आवासिक (=सदा आश्रममें रहनेवाले भिक्षु) है । ०१ और नाना प्रकारक अनाचार करते हैं। भन्ते! जो मनुष्य पहले श्रद्धालु प्रसन्न थे वह भी अब अश्रद्धालु--अप्रगन्न हैं। जो कोई पहले संघके लिये दानके रास्ते थे वे भी टूट गये। अच्छे भिक्षु छोळ जाते हैं । पापी निक्ष बाम करते हैं। अच्छा हो भन्ते ! भगवान् कीटागिरिमें (ऐमे) भिन्न भेजे जिसमें यह आवाग टीक हो जाय'।" "अच्छा आत्रुस !"- (कह) वह भिक्षु उस उपासकको उत्तर दे आमनने उठ जिधर था बससी है उधर चल दिया । क्रमशः जहाँ श्रावली में अनाथपिडिकका आराम जे त व न था, जहां गवान् से कहा गया। जाकर भगवान्को अभिवादनकर एक ओर बैठ गया। बुद्ध भगवानांना यह आगार है कि नयागत भिक्षुओंके साथ प्रति सम्मोदन (=युगल-प्रटन पूछना) करें। तब भगवान्ने उग निभुमे नमा-- "निक्षु ! अच्छा तो रहा, यापनीय तो रहा, नकली के बिना गदेने तो आया. और नि ! तू कहाँने आता है ?" "अच्छा रहा भगवान् ! यापनीय रहा भगवान् ! नकली के बिना ले ! मै गम आया। भन्ते ! मैं का गी (देवा ) में वर्षावाम काले भगवान्के दर्शनको धावनी जारी की टालिनि । तब मैं भन्ले ! पूर्वाह्न ममय पहिन कर, पात्र-चीवर ले, • पिया अपत हो कोटा गिरि प्राट हुआ।' अच्छा हो भन्ने ! भगवान् बोटानिम्मि (ने) निभेजें जिनमें यह आवास टोक को जाम।' १ देखो पृष्ठ ३४१ ।